अर्धा श्रीनिवास
Monday 17 February 2014 12:49:22 PM
हैदराबाद। समक्का सरक्का जठारा या मेदाराम जठारा देश के आदिवासियों का सबसे बड़ा धार्मिक समागम है। यह द्विवार्षिक समागम हर साल आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र मेंवारंगल जिले के तडवयी मंडल में मेदाराम गांव में होता है। इस बार भी यह समागम 12 फरवरी से 15 फरवरी तक हुआ, जिसमें लगभग 1 करोड़ श्रद्धालु शामिल हुए। एक छोटे से गांव में यह आदिवासियों का त्यौहार है और पिछले 6 वर्षों में एक प्रमुख तीर्थ यात्रा बन गया है। इस महोत्सव को देवी समक्का और सरक्का का आर्शीवाद प्राप्त है। विश्वास किया जाता है कि जठारा के 3 से 4 दिनों के अंदर देवी की वास्तविक मौजूदगी महसूस कीजाती है। यह ध्यान देने की बात है कि पिछली बार के जठारा में 80 लाख तीर्थयात्री आये थे।
समक्का जठारा को आंध्र प्रदेश सरकार ने 1998 में सरकारी महोत्सव घोषित कर दिया था। इस मेले में विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं। इन राज्यों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक और झारखंड शामिल हैं। यहां आने वाले तीर्थयात्री देवी को जम्पन्ना वागू (धारा) में डुबकी लगाने के बाद देवी को बंगारम (स्वर्ण) अर्पित करते हैं, जो गुड़ में आधी मात्रा में मिलाकर बनाया जाता है। यह ऐसा महोत्सव है, जिस पर वैदिक अथवा ब्राहमणों का कोई असर नहीं है। जम्पन्ना वागू गोदावरी नदी की एक सहायक नदी है। जम्पन्ना आदिवासी देवी समक्का का आदिवासी लड़ाका बेटा है। जम्पन्ना वागू उसे इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसी नदी के तट पर वह काकातियन सेना के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था। जम्पन्ना वागू का झंडा अब भी लाल रंग का बनाया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि जम्पन्ना का रक्त अब भी इसके साथ है। वैज्ञानिक रूप से पानी का लाल रंग मिट्टी की बनावट के चलते माना गया है। श्रद्धालुओं का ख्याल है, कि जम्पन्ना वागू के लाल पानी में डुबकी लगाने से उनके उन देवताओं की याद आती है, जो उन्हें और उनकी आत्माओं में साहस भरते हैं।
महोत्सव माघ की सुधा पूर्णमासी की शाम को शुरू हो जाता है, जब सिंदूर के रूप में सरक्का देवी कन्नेबोईनापल्ली से परंपरागत रूप से लाई जाती हैं। यह जगह जंगल में एक गांव में है और एक पेड़ के नीचे मिट्टी के मंच पर गड्ढे के रूप में रखी होती हैं। अगले दिन सूरज डूबने से समक्का देवी (सिंदूर के रूप में) चिलूकलागुट्टा से लाई जाती हैं। देवी के लिए अलग-अलग दो गड्ढे (मंच) बनाये जाते हैं। एक गड्ढा देवी समक्का के लिए और दूसरा देवी सरक्का के लिए होता है। उनका प्रतिनिधित्व बड़े-बड़े बांस करते हैं जिनपर हल्दी और सिंदूर (पशुपू और कुमकुम) लगा दिया जाता है। बहुत पहले से समक्का के गड्ढे पर एक बहुत बड़ा पेड़ उगा हुआ है। सैकड़ों लोग इन देवियों के प्रभाव से अपनी यात्रा के दौरान नाचते गाते हुए यहां पहुंचते हैं। विश्वास किया जाता है कि उन पर देवी आई हुई हैं। लोगों का विश्वास है कि देवी समक्का और सरलम्मा उनकी सारी मन्नतें अपने देवीय और चमत्कारी शक्तियों से पूरी करेंगी। यहां आदिवासियों के अनेक जोड़े आते हैं, जो बच्चों की मन्नतें मानते हैं। अनेक श्रद्धालु जठारा के समय मानी हुई अपनी मन्नतें पूरी हो जाने पर अपने वादे पूरे करते हैं। वे देवी को गुड़, नारियल और नकद चढ़ावा चढ़ाते हैं। श्रद्धालु जम्पन्ना नदी में स्नान करके अपने पाप विसर्जित करते हैं। जब पुजारी जंगल में किसी गुप्त जगह छिपाये गए बक्से और पुरानी चीजों को लेकर आते हैं तो उस समय जोरदार ढंग से ढोल और तुरही बजाये जाते हैं और श्रद्धालु जोर-जोर से हर्ष ध्वनि करते हैं।
कहा जाता है कि महोत्सव के दौरान एक बड़ा चीता शांतिपूर्वक वहां आता है, लेकिन किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। एक आदिवासी कहानी के अनुसार 13वीं सदी में कुछ आदिवासी नेताओं ने एक नवजात बच्ची (समक्का) के शिकार को निकले थे, उस बच्ची से अनंत प्रकाश की किरणें निकल रही थीं और वह चीतों से खेल रही थी। उसे अपने निवास स्थान लाया गया। उस आदिवासी समुदाय के प्रमुख ने उस बच्ची को गोद ले लिया और बाद में वही बच्ची क्षेत्र के आदिवासियों की रक्षिका बनी। उसका विवाह काकतीये वंश के एक आदिवासी सामंत पगीडिड्डा राजू से हुआ। बाद में वह वारंगल क्षेत्र का शासक बना। उसे दो बच्चियां और एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिनके नाम क्रमश: सारक्का, नगुलंमा और जम्पन्ना पड़े। इसके कुछ समय बाद कई वर्षों तक अकाल पड़ गया, जिसके परिणामस्वरूप गोदावरी नदी सूख गई। पगीडिड्डा राजू ने महाराज प्रताप रूद्र को कर के रूप में कोई राशि अदा नहीं की थी। महाराज प्रताप रूद्र ने इस पर आदिवासियों का दमन करने और कर वसूल करने के लिए एक बड़ी सेना भेज दी। आदिवासी प्रमुख पगीडिड्डा राजू और काकतीय सेना के बीच सेम्पेना वागू (जम्पन्ना वागू) के तट पर युद्ध हुआ। कोया सेना बहुत बहादुरी से लड़ी, लेकिन वह काकतीय सेना के श्रेष्ठ हथियारों के सामने नहीं ठहर पाई।
पगीडिड्डा राजू बहुत बहादुरी से लड़ा। उसकी पुत्रियों सरक्का, नगुलम्मा और पुत्र गोविंद राजू (सरक्का के पति) इस युद्ध में काम आए। बाद में जम्पन्ना का भी सेम्पेन्ना वागू में देहांत हो गया। सेम्पेन्ना वागू को बाद में काकतीय सेना के साथ हुए युद्ध में बहादुरी दिखाने के कारण जम्पन्ना वागू नाम दिया गया। यह खबर पाकर समक्का भी युद्ध में कूद पड़ी और उसने काकतीय सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। उसकी बहादुरी और शौर्य से चकित काकतीय प्रधानमंत्री कोया राज्य आए और उन्होंने शांति प्रस्ताव रखा, लेकिन समक्का ने शांति प्रस्ताव खारिज कर दिया और युद्ध में मारे गए लोगों की याद को अक्षुण्य रखने के लिए युद्ध जारी रखने का फैसला किया। लड़ाई जारी रही और समक्का भी इसमें गंभीर रूप से घायल हुई। समक्काने अपने लोगों से कहा कि वे जब तक उसे याद रखेंगे, तब तक वह उनका बचाव करती रहेंगी। इसके बाद उन्होंने काकतीय वंश का नाशहो जाने का श्राप दिया, उनका घायल शरीर चिराकला गुट्टा की तरफ बढ़ा और जंगल में गायब हो गया। कोया के लोगों ने उन्हें बहुत खोजा और पाया कि सिंदूर रखने के बक्से में उनकी चूड़ियां तथा पूरी तरह से विकसित चीते के पैरों के निशान रखे हुए हैं। ये चीजें उन्हें ठीक उसी जगह मिलीं, जहां वह कोयावासियों को बच्ची के रूप में मिली थी। कुछ समय बाद जल्दी ही काकतीय वंश समाप्त हो गया। तब से कोया वड्डारा और भारत में रहने वाले अन्य आदिवासी समुदाय और जातियां समक्का और सरक्का की याद में नियमित रूप से महोत्सवका आयोजन करती रही हैं। इस बार भी यह आयोजन धूम-धाम, श्रद्धा और परंपरागत रूप से मनाया गया।