जयंती श्रीवास्तव
लखनऊ में रेलवे आरक्षण पटल पर पुरी जाने के लिए कई दिन पहले ही नीलांचल एक्सप्रेस में प्रतीक्षा सूची का टिकट देखकर मेरी नींद उड़ गई। वापसी का टिकट तो पक्का लेकिन यहां से जाने का टिकट लंबी प्रतीक्षा में चला गया था। निराशा में मैंने अपनी मां से कहा क्या करें? पुरी जाएं कि नहीं? मेरी मां की पुरी जाकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने की इच्छा और मेरी छुट्टियों के उपयोग का प्रश्न मेरे दिमाग को चकराने लगा। खैर, मैंने पुरी जाने का दृढ़ निश्चय कर लखनऊ से रेलवे रिजर्वेशन पक्का कराने के लिए हाथ-पांव मारने शुरू किए और इसमें मेरे एक मित्र ने मेरी मदद की।
मैं रोज उन्हें एसएमएस करके पूछती कि टिकट आरक्षण का क्या हुआ? पुरी जा पाएंगे कि नहीं? कई बार निराशा से मन में आया कि चलो छोड़ें, लेकिन एक उम्मीद हमारी हिम्मत बढ़ाए हुए थी कि टिकट कंफर्म हो जाएगा। आरक्षण मिलने की खबर जानने के लिए मेरी धड़कने ऐसे तेज हो रही थी कि जैसे मै हाईस्कूल इंटर या सीबीएससी बोर्ड के रिजल्ट का इंतजार कर रही हूं। ट्रेन जाने से कई दिन पहले यात्रा का सारा सामान पैक करके रख दिया गया था और मैं अपने मित्र से यह जानकर मां को दिलासा दिला देती थी कि टिकट कंफर्म हो जाएगा। ट्रेन जाने का दिन आया। नीलांचल एक्सप्रेस लखनऊ से पुरी के लिए सवा दो बजे छूटती है। दो घंटे ट्रेन जाने में बचे हों और आरक्षण का कोई पता न हो तो सोचिए, किसी बड़ी यात्रा पर निकलने से पहले कैसी मनःस्थिति होगी? रविवार का दिन वैसे था।
ट्रेन के एक घंटा पहले रेलवे आरक्षण पटल पर मैंने फिर पता किया और मुझे सूचना मिली कि ट्रेन नंबर में बोगी नंबर और सीट नंबर कंफर्म। खुशी के मारे हम दोनों मां-बेटी उछल पड़े। उछलने की बात भी थी कि इतनी लंबी यात्रा में मैं अपनी मां के साथ ट्रेन से पुरी तक बिना रिजर्वेशन के नहीं जा सकती थी। यह मेरी बेवकूफी ही होती। करीब 15 दिन आरक्षण की प्रतीक्षा के तनाव भरे दिनों का अंत पुरी के लिए प्रस्थान के दिन हुआ। मैने एक सबक तो लिया कि ऐसी लंबी यात्रा पर जाने से पहले सुगम यात्रा की प्लानिंग बहुत जरूरी है कि जाने के साधन क्या हैं और वहां से आना-जाना पूरी तरह से सुखमय सुनिश्चित है की नहीं। बाकी तैयारियां तो ऐसी यात्राओं पर निकलने की खुशी में यूं ही पूरी हो जाती हैं, लेकिन यहां पर भी सावधानियों की जरूरत है, जो आपको यात्रा में बरतनी होती हैं और जिनकी आवश्यकता उस यात्रा के लिए अत्यंत जरूरी होती है।
जगन्नाथ पुरी हिंदुस्तान का वो हिस्सा है, जिसकी अहमियत हर हिंदुस्तानी के ज़ेहन में एक शक्ति बनकर मौजूद रहती है। एक वामपंथी और आधुनिक विचारों वाले पत्रकार की बेटी होने के बावजूद न जाने कैसे उम्र के साथ-साथ, पुरी भगवान के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता ही गया और मैं जीवन के हर दिन के साथ आध्यात्मिक रूप से भगवान जगन्नाथ को अपने भीतर देखने लगी। मेरे सर से अपने पिता का साया उठने के बाद एक अल सुबह ऐसा लगा कि बस अभी-अभी माताजी को पुरी घुमा कर लौटी हूं। यह भी लगा कि मानो भारत का सुंदर समुद्र तटीय प्रदेश उड़ीसा भौगोलिक रूप से मेरे सामने आ गया है। मुझे याद है कि किशोरावस्था में एक बार पिताजी के साथ अयोध्या जाना हुआ और पिताजी ने मुझे उस समय की यात्रा को पूरी तरह से पर्यटन और आध्यात्म के दो रूपों में साकार कराया। उस स्वप्न के बाद मैं यह समझ गई कि अयोध्या के अनुभव को पुरी यात्रा के रूप में साकार करना ही पिता का आदेश है।
बिना किसी को बताए मैने यात्रा के सभी इंतजाम कर लिए तो माताजी के आश्चर्य और प्रसन्नता की सीमा नहीं रही, यह और जानकर भी कि उनके बहुत ही प्रिय भगवान जगन्नाथजी अब उनकी आंखों के सामने होंगे। दुविधा केवल एक थी कि क्या एक पुत्री अकेले अपनी 66 वर्षीय माताजी को 1400 किलोमीटर की यात्रा बिना बाधा पूरी करा सकेगी? यह मेरे सामने एक चुनौती थी, परंतु मेरे साथ थे-पुरी भगवान और पिता का अनवरत अदृश्य साया, माँ का आशीर्वाद एवं प्रेरणाओं से भरा स्नेह और पर्यटन के माध्यम से जगन्नाथ भगवान की स्पेल बाउंड सुंदरता को समझने का उद्देश्य!
फिर क्या 8 जून का दिन! नीलांचल एक्सप्रेस और हमारी पुरी यात्रा आरंभ हुई। यह एक आध्यात्म की पर्यटन के महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट की सी शुरूआत थी। रेल ने उत्तर प्रदेश को छोड़ते हुए बिहार, पश्चिम बंगाल में पहुंच कर 10 घंटे देरी से उड़ीसा में प्रवेश किया। उड़ीसा पर्यटन विभाग के अतिथि गृह, जो कि कई जगह पंथ निवास के नाम से स्थापित हैं, उनका हमारे लिए सुखपूर्वक पर्यटन में बड़ा ही योगदान रहा। ट्रेन की देरी के कारण खड़गपुर से फोन पर मेरे ट्रेवल एजेंट जैना ने बड़ी ही विनम्रता के साथ हम दोनों मां-बेटी के पुरी यात्रा के प्रोग्राम और उसकी व्यवहारिक समस्या समझ कर बुकिंग दे दी थी। उन्होंने पूरे सम्मान के साथ 10 जून की सुबह 4 बजे हमारा स्वागत किया।
जैसे लगा कि सब कुछ यहीं हमारे सामने है। कहां लखनऊ की भागती-दौड़ती जिंदगी, रोज की तीस-पैंतीस किलोमीटर की ड्राइविंग, पचासों फोन काल से दूर यहां मेरे होटल के कमरे के ठीक सामने समुद्र, जो कि उछल-उछलकर जैसे जीवन के हर सत्य से अवगत कराने को व्याकुल हो रहा था। मानसिक रूप से मैं बड़ी ही कशमकश में थी। एक तरफ भगवान जगन्नाथजी की नगरी में होने का एहसास मात्र ही जीवन में ठहराव और शांति की दिशा दे रहा था, दूसरी तरफ सामने विशाल समुद्र, वीभत्स रूप में मानो चिल्ला-चिल्ला कर जीवन के भयावह पहलुओं के पन्ने पलट कर उसकी सच्चाईयों को दिखा रहा था। यहीं से एक गहरे चिंतन के साथ हमारी आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है। आखिर जीवन का सत्य क्या है? आखिर पुरी आने का उद्देश्य है क्या? क्या है स्वयं से परिचय? इन प्रश्नों के उत्तर की खोज बहुत रोमांचक थी और आध्यात्मिक भी।
अतिथि गृह की औपचारिकता पूरी करने के बाद मैंने उड़ीसा पर्यटन विभाग की सुव्यवस्थित बस से अपनी सात दिनों की पर्यटन यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित किया। यहां पर निश्चित ही उड़ीसा पर्यटन ने मेरा सामान्य ज्ञान बढ़ाकर मेरा सफर बहुत ही सरल कर दिया था। उड़ीसा के प्रमुख क्षेत्रों का भौगोलिक अध्ययन मैंने बहुत अच्छे से किया। धन्य हो इंटरनेट युग का और उड़ीसा पर्यटन विभाग की उन बहुउपयोगी जानकारियों का, जो एक सामान्य व्यक्ति से माऊस के क्लिक भर की दूरी पर हैं। नहा-धोकर तैयार होने के बाद समस्या यह थी कि किस प्रकार मंदिर में प्रचलित पंडा प्रथा का सामना किया जाए, क्योंकि सामान्य जानकारी के आधार पर ज्ञात था कि जगन्नाथ मंदिर के भीतर सबकुछ पंडा पर निर्भर है यानी मजबूरी थी। बिना पंडा को साथ लिए मंदिर में प्रवेश का मतलब कि दुखद अनुभव झेलना पड़ सकता था।
सच बताऊं! मन ही मन में उस वक्त मुझे पंडा लोगों की माफिया गिरी और ढकोसलेबाजी अच्छी नहीं लग रही थी, परंतु मेरे अतिथि गृह के एक अधिकारी ने मदद के तौर पर जगदबंधु पंडा को हमारे साथ किया तथा आश्वासन दिया कि हमारा मंदिर में प्रवेश, दर्शन, सुरक्षा, प्रसाद सब उन्हीं की जिम्मेदारी होगी। फिर भी जैसा हमने सुन रखा था, संशय अभी भी मेरे साथ थे। पंडा जगदबंधु बहुत ही सुलझे व्यक्ति थे। उनका जोर से ‘जय जगन्नाथ’ बोलना मानो भगवान जगन्नाथ के सानिध्य में जादू की सी अभिव्यक्ति करने लगा। ऐसा लगा जैसे साक्षात हनुमानजी, मुझे और माताजी को जगन्नाथ भगवान से मिलाने चल दिए। जगदबंधु ने बहुत ही प्रेम और श्रद्धा के साथ मंदिर में हमारा प्रवेश कराया और कुछ समय के लिए मुझे लगा कि मैं धरती पर नहीं हूं, भगवान के सानिध्य में हूं। मंदिर में मंत्रों के कर्णप्रिय जोरदार उच्चारण, मार्गदर्शक पंडों के साथ भक्तों की अपार भीड़ के बीच भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र का विशाल स्वरूप देखकर घबराहट में मैंने कहा पंडाजी मुझे वापस जाना है, बाहर। पंडाजी ने मुझे समझाते हुए कहा कि स्वयं को प्रभु से जोड़ो, यह चंद पलों का खेल है। इस सत्य का वह एहसास शायद मंदिर के अंदर से ज्यादा वहां से निकलने पर आरंभ हुआ। यह एहसास था जीते जी आत्मा को परमात्मा में मिलने का।
विश्वास नहीं हो रहा था कि वहां एक भी भिखारी नहीं है। पूछने पर पता लगा कि जगन्नाथ भगवान के दरबार से कोई भूखा नहीं रहता है, वो सबको खिलाते हैं। आपको पता है कि विश्व का सबसे बड़ा रसोईघर भगवान जगन्नाथ मंदिर में है, जहां 400 बावर्ची काम करते हैं। प्रतिदिन लाखों लोग भगवान जगन्नाथ का महाप्रसाद ग्रहण करते हैं। प्रबंधन पढ़ाने वाली मैं स्वयं इतना पेशेवर प्रबंधन देखकर दंग रह गई और ख्याल आया कि क्यों हम लोग प्रबंधन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इतनी तारीफ करते हैं? मैंनेजमेंट और होटल प्रबंधन के छात्रों को यहां आकर बहुत कुछ सीखना चाहिए कि किस प्रकार एक छोटा-मोटा पांच सितारा होटल जैसा इंतजाम यहां तो रोज ही होता है। यहां यह बताना भी अत्यंत आवश्यक है कि महाप्रसाद के 56 भोग मिट्टी के बर्तनों में बनते हैं तथा प्रतिदिन नए बर्तन ही भोग बनाने के काम आते हैं। भगवान जगन्नाथ मंदिर के दर्शन में वास्तव में जैसे मैंने कुछ अनमोल पाया है। पुरी के बीच और समुद्र के दर्शन तो मानो घर की बात बन गई थी। देख रही हूं-पुरी के गुड़िया मंदिर, सखी मंदिर भी अत्यंत सुंदर हैं। सभी मंदिरों में सामान्य रूप से मिट्टी के दो शेर प्रवेश द्वार पर हैं, जो बहुत ही आकर्षक हैं। ये दृढ़ता, व्यक्तित्व, निर्भीकता और चुनौती के प्रतीक जो हैं।
अगले दिन बीच पर सूर्योदय का आनंद लेने के बाद हम लोग 7 बजे तैयार होकर उड़ीसा पर्यटन की बस से आगे की यात्रा पर निकल पड़े। रामानंदी मंदिर में प्रणाम कर हमें विश्व के इकलौते सूर्य मंदिर कोणार्क को देखने जाना था। कोणार्क जिसका ख्याल भर ही रोमांच से भर देता है। कोणार्क एक ऐसा मंदिर है, जहां पूजा-अर्चना नहीं होती है। सूर्य भगवान के सात घोड़े प्रवेश द्वार पर तथा दो घोड़े पीछे की तरफ पहरा देते हैं। प्रवेश द्वार पर ही एक अकेले पत्थर को काटकर शेर, उसके नीचे हाथी की सूंड में मनुष्य बनाया गया है, जो यह संदेश देता है कि शक्ति और धन का घमंड मानव को नीचे गिराता ही चला जाता है। यहां पूरी तरह से मै मंत्र-मुग्ध हुई और कोणार्क से मेरी यात्रा आगे बढ़ी। मैंने रास्ते में यह विचार किया कि क्यों न शिक्षा विभाग में यह प्रस्ताव रखा जाए कि सरकारें कक्षा 10-12 के बच्चों को भारत-दर्शन के लिये कुछ फंड प्रदान करें, ताकि वे अपने प्रारंभिक जीवन में ही देश की संस्कृति, भाषा, पुरातत्व, संस्कार और नाना प्रकार के रहन-सहन को देखें और जानें। कुछ भी हो किसी भी विषय पर किताबी ज्ञान प्रैक्टिकल से बढ़कर नहीं है।
उस समय मुझे अपनी पर्यटन यात्रा किसी बहुत बड़े आईआईएम के प्रोफेसर की भांति प्रतीत हो रही थी। हम भुवनेश्वर पहुंचे और देखा-वहां का लिंगराज मंदिर और स्वयंभू शिवलिंग। भगवान शंकर का एक अद्भुत स्वरूप और उसका दर्शन आध्यात्म, कला और जीवन शैली के अद्भुत संगम से टकटकी लगाए देखने वाला था। मैंने महसूस किया कि पुरी में प्रवेश के बाद हर पल ही एक नया अनुभव था, जो बड़ा ही विलक्षण और मेरे लिए स्वाभाविक था। यहां से हम धौलगिरी पर्वत पर गए। जापानियों ने यहां 1972 में भगवान बुद्ध का श्वेत स्तूप बनवाया हुआ है। उसमें भगवान बुद्ध की चार प्रतिमाएं चारों तरफ स्थित हैं। प्रथम ज्ञान देते हुए, द्वितीय सोते हुए, तृतीय आशीर्वाद देते हुए और चौथी ध्यान में लीन बुद्ध। धौलगिरी से खंडगिरी-उदयगिरी की तरफ बस रवाना हो गई। रास्ते में उड़ीसा की लाजवाब प्राकृतिक सुंदरता देखने और निहारने का मौका ही मौका मिला। क्या प्राकृतिक सम्मोहन है? खंडगिरी-उदयगिरी की गुफाएं और उनकी बनावट भी आर्किटेक्चर का एक नायाब नमूना हैं, वाह! तत्पश्चात एशिया का सबसे बड़ा चिड़ियाघर नंदन कानन देखने का मौका मिला। सफेद विशाल शेर, हिरन, चीतल, मस्ती में नाचते हुए मोर बहुत ही खूबसूरत लगे। नंदन कानन वास्तव में भौगोलिक और व्यवस्था के पैमाने पर बहुत ही विशाल प्रतीत हुआ।
हमारे साथी समूह में कुछ बंगाली, पंजाबी, मद्रासी लोग भी थे। वह सभी बहुत अच्छी टीम के सदस्य साबित हुए और उन्होंने समय प्रबंधन और आपसी सहयोग का पूरा ध्यान रखते हुए यात्रा के आनंद को सुखद और यादगार बना दिया। शाम को वापस लौटते-लौटते साढ़े सात बज गए और 8 बजे हमारे पंडा जगदबंधु, प्रभु का महाप्रसाद लेकर आए। मिट्टी के बर्तनों में तीन प्रकार के चावल (मीठे, सादे, खिचड़ी), दाल मसालेवाली, दो सब्जी, मालपुए, मलाई और खाने का आनंद केले के पत्ते पर। महाप्रसाद की महिमा अपरंपार। हम बात कर रहे थे कि यह कैसा परमानंद है, यहां के लोगों में अतिथि सत्कार की यह कैसी दीवानगी है, यह कैसी अनेकता में एकता है? विश्वास कीजिए कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, मेरा बंधन भगवान जगन्नाथ के साथ और गहरा होता जा रहा है, मैं खुश हूं कि प्रभु के अत्यंत करीब जा रही हूं।
अगले दिन पुनः सुबह सात बजे हम एशिया की सबसे बड़ी झील-चिलिका झील देखने रवाना हुए। ओह! सतपड़ा पर बस से उतरते समय अचानक माताजी गिर पड़ीं। एक पल के लिये तो मैं बहुत घबड़ा गई, परंतु अगले ही पल मैंने स्वयं से कहा कि मैं प्रभु के आदेश से यहां हूं और वही ऐसे संकट में रास्ता भी दिखाएंगे। माताजी को घुटने में अंदरूनी गहरी चोट लगी थी। भरपूर साहस की महिला होने के कारण माताजी ने चिलिका झील की यात्रा स्टीम बोट में चढ़कर 3 घंटे व्यतीत कर पूरी की। वहां डाल्फिन देखने का मजा ही कुछ और था। राजहंस पर हम 15 मिनट रूके। वहां पर जीवन लगभग समाप्त था। वहीं पर कहीं दूर चिलिका झील और बंगाल की खाड़ी का मिलन दिखाई देता है। द्वीप पर नारियल पानी, सीप से मोती निकालते, मछली और झींगा भूनते मछुआरे अपना जीवन यापन करते दिखे। सोच रही हूं कि कुदरत का निजाम सबके लिए न्यायप्रिय है, फाईव स्टार ज़िंदगी के कड़वे सच से दूर ये मछुआरे, यहां पर सपरिवार अपनी तटीय जीवनशैली और दिनचर्या में कितने मस्त और खुश हैं, सुखी हैं। यह है, कठिन ज़िदगी का एक अद्भुत पाठ्यक्रम। माताजी की चोट के कारण चिलिका झील से वापसी कठिन तो रही, परंतु सभी लोगों ने बहुत बड़ा सहयोग किया।
शाम को पुरी पहुंचकर, माताजी को कमरे में लिटा कर, दवा देकर, मैं भागती हुई स्वर्ग द्वार (पुरी का मुख्य बाजार) पहुंची। यह गोल्डेन बीच के पास है। बाजार जाते समय रिक्शा वाला मुझे एक बार पुनः मेरे भगवान जगन्नाथ के सामने से ले गया। मैंने देखा, सड़क के किनारे लकड़ी के विशाल गट्ठे पड़े हैं। मै सोचने लगी कि ये क्या तरीका है? इतनी पतली सड़क पर यह ऐसे क्यों डाल दिए गए हैं? सहसा सड़क के दूसरी तरफ 8-10 फिट ऊंची लकड़ी के दो पहिये भी दिखे और मेरी प्रसन्नता और जिज्ञासा बढ़ी। रिक्शा वाले ने बताया कि यह जुलाई में होने वाली रथ यात्रा के पहिये थे, जो अभी कारीगरों के हाथों तैयार हो रहे हैं। भगवान जगन्नाथ की विश्वविख्यात रथयात्रा की यह क्या विशाल तैयारी थी। बाजार में यह देखकर मैं भाव-विभोर हो गई कि रोज मर्रा के छोटे-छोटे दुकानदार बोहनी होने पर चप्पल उतार कर मुझे प्रणाम करते और कहते, ‘दीदी आपका भाग्य से हमारा अच्छा है।’ जगन्नाथ पुरी के लोग सचमुच बहुत ही सरल और अच्छे हैं। ऐसा लगता है, जगन्नाथजी सभी में प्रत्यक्ष रूप में दिखते हैं। उड़ीसा में साड़ियों और हेंडीक्राफ्ट कला का काम तो बहुत ही अच्छा है। उसी शाम अतिथि गृह लौटने पर पंडा जगदबंधु फिर मिले और खूब सारा प्रसाद और आशीर्वाद दिया।
अगली सुबह बहुत उदासी भरी थी, क्योंकि यह हमारा जगन्नाथपुरी से घर वापसी का दिन था। इतने दिन हम पर्यटन और आध्यात्म में रहे, जैसे स्वर्ग में रहे हों। इस यात्रा में उड़ीसा सरकार के पर्यटन प्रबंधन की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम होगी। वास्तव में उड़ीसा सरकार ने अपने पर्यटक अतिथियों के लिए पर्यटन सुविधाओं का सुव्यवस्थित ढंग से इंतजाम किया हुआ है। सरकारी प्रबंधन में ऐसा कम ही देखने को मिलता है। उड़ीसा पर्यटन विभाग को इसके लिए बधाई! यहां की अविस्मरणीय यादें साथ लेकर हम उदास मन से पुरी के रेलवे स्टेशन पहुंचे और अपनी ट्रेन में लखनऊ के लिये चल पड़े। पुरी से लौटते समय विचार मंथन में अपने आप ही यात्रा का उद्देश्य और उससे जुड़ी सभी बातें एक-एक कर साफ होती चली गईं। इस और ऐसी यात्राओं की सार्थकता समझ में आई।
आस्था सिर्फ श्रद्धा और विश्वास पर आधारित है। बंगाल की खाड़ी में कितनी आध्यात्मिकता समाए है। इस जगह प्रकृति, मनुष्य एवं सभी वन्यजीव उन भगवान जगन्नाथ की शक्ति का सम्मान, एहसास और उनके अलौकिक रूप का दर्शन करते हैं, जिनकी महिमा का बखान मेरे शब्दों में संभव नहीं है। मेरी वहां बार-बार जाने की इच्छा के साथ आस्थाओं से भरी शुभकामनाएं हर उस पाठक को, जो मेरी यह यात्रा पढ़ रहा है। भगवान जगन्नाथ की कृपा सभी को प्राप्त हो। जय जगन्नाथ।