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नेपाल में ‘बंदूकवादी लोकतंत्र’ की प्रचंड की सत्ता

यज्ञपुरुष गहिरे

कमल दहल प्रचंड-kamal dahal prachanda

काठमांडू। नेपाल में ‘बंदूकवादी लोकतंत्र’ लेकर आए माओवादियों को नेपाल की संविधान सभा में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद सभी सर्वोच्च पद हासिल करने में सफलता नहीं मिल पाई। माओवादियों के सुप्रीम कमांडर कमल दहल प्रचंड को प्रधानमंत्री बनकर अपनी सरकार के गठन में दिन में ही तारे नज़र आ गए। कमल दहल प्रचंड की चीन से दोस्ती और भारत से पंगा, नेपाली जनता और यहां के राजनीतिक दलों में घमासान का मुख्य कारण बन रहा है। राजनीतिक अस्थिरता और विघटन की चिंता से घबराये हुए नेपाल की चिंताएं कम नहीं हुई हैं। नेपाल की राजशाही के खिलाफ एक दशक तक लगातार हिंसा, आगजनी, निजी भू-संपत्तियों पर हमले, लूट की अंतहीन वारदातों और उनसे भी आगे करीब 13 हजार बेकसूर लोगों की निर्मम हत्याओं के मामले, कमल दहल प्रचंड का पीछा करते हुए उन्हें रोज़ ही नई मुश्किलों में डाल रहे हैं और डालते रहेंगे। नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र को सिंहासन से उतारकर उनका राजमुकुट जमा कराने और नारायणहिती राजमहल खाली कराने की ज़िद पूरी करने के बाद कमल दहल प्रचंड की नेपाल के तीनो सर्वोच्च पदों पर कब्जा करने की योजना पूरी नहीं हो सकी। नेपाल के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के महत्वूपर्ण पद तो माओवादियों के हाथ से निकल ही गए हैं। प्रधानमंत्री का पद भी प्रचंड के हाथ से फिसलते-फिसलते बचा है जिससे माओवादी विद्रोहियों को रेवडि़यों की तरह से सरकार के पद बांटने की उनकी योजना भी धरी रह गई है। उधर संयुक्त राष्ट्र और विश्व समुदाय में नेपाल को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। भारतीय उपमहाद्वीप का यह खूबसूरत देश नेपाल भौगोलिक और सामरिक दृष्टिकोण से हमेशा भारत चीन और अमरीका जैसी महाशक्तियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है इसलिए नेपाल में चीन की दिलचस्पी से माओवादियों का सत्तारोहण और उसका निर्बाध रूप से चलते रहना इतना आसान नहीं लगता है।

चुनाव में माओवादियों ने यूं तो नारा दिया था कि ‘अए लाई हेरियो पटक-पटक माओवादी लाई हेरो एक पटक’ (सबको देखा बार-बार माओवादी को देखो एक बार)। चुनाव में नेपालियों से बोल दिया गया था कि जिन्हें जिंदा रहना है वे माओवादियों को वोटकरें और जिन्हें बे-मौत मरना हो वे चाहे जहां मुहर लगाएं इसलिए नेपाल की बहुत सी भोली जनता करती भी क्या? मगर कमल दहल प्रचंड ने अपनी जीत की अकड़ में भारत से पुरानी संधियों को लेकर भारत के खिलाफ मोर्चा खोलकर जिस प्रकार चीन के लिए नेपाल के दरवाजे खोल दिए उससे भारत, अमरीका, नेपाली जनता और नेपाली संविधान सभा के कान खड़े हो गए हैं। प्रचंड अब विश्व समुदाय और संविधान सभा को यह विश्वास दिलाने में विफल साबित हो रहे हैं कि वह नेपाल में सफलतापूर्वक और बिना भेदभाव के सरकार चलाएंगे। उनके प्रधानमंत्री बनने से विश्व समुदाय में एक चिंता हमेशा कायम रहेगी कि वे जिन प्राथमिकताओं पर सरकार चलायेंगे वे प्राथमिकताएं चीन को छोड़कर बाकी किसी देश को मंजूर नहीं होंगी।
कभी किसी कानून को न मानने वाले कमल दहल प्रचंड और उनके माओवादी नेपाल की सेना में अपने 20 हज़ार हथियारबंद विद्रोहियों को भर्ती करना चाहते हैं जो नेपाल की संविधान सभा में माओवादियों के अलावा किसी भी दल को मंजूर नहीं है। प्रचंड पर नेपाली कांग्रेस और संविधान सभा का दबाव है कि माओवादी, पहले नेपाली जनता से लूटी गई संपत्ति भी वापस करें जिसके लिए सशस्त्र माओवादी तैयार नहीं हैं और वे उसी प्रकार से अपनी छापामार गतिविधियों को अभी भी जारी रखे हुए हैं। अमरीका ने प्रचंड और उसके माओवादियों को अभी भी आतंकवादियों की सूची में डाल रखा है। अमरीका, नेपाल के चीन की तरफ बढ़ते कदमों को लेकर और उससे भारतीय उप महाद्वीप में बढ़ने वाले गंभीर तनाव से बहुत चिंतित है। नेपाल के निवासियों के मुकाबले बाहर के लोग यहां ज्यादा राजनीति करते हैं एवं यहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनमें बहुत से अपराधी भी हैं। अमरीका के सामने समस्या यह आ गई है कि वह माओवादियों की सत्ता को किस प्रकार मान्यता दे क्योंकि वह उन्हें आतंकवादी मानता आ रहा है।
संविधान सभा के चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में जीतने के बाद कमल दहल प्रचंड से अमरीकी राजदूत ने मुलाकात की थी लेकिन दोनों के बीच अविश्वास की गहरी खाई के पटने का कोई रास्ता दूर तक नजर नहीं आ रहा है। कमल दहल प्रचंड की चीन से निकटता एक मुख्य मुद्दा है। अमरीका के सामने और भी कई मुसीबतें हैं जिनमें माओवादियों को मान्यता देने से दुनिया के बाकी आतंकवादी संगठनों के बारे में उसे अपना नजरिया फिर से स्पष्ट करना होगा। क्योंकि बहुत से संगठनों के तर्क हैं कि वे आतंकवादी नहीं हैं बल्कि अपनी मान-सम्मान-संस्कृति की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं। माओवादियों की सरकार का गठन होने से नेपाल में चीनी हस्तक्षेप तुरंत बढ़ जाएगा जिसकारण अमरीका माओवादियों की सरकार को ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं करेगा और जल्दी ही एक समय बाद फिर से नेपाल को राजनीतिक अस्थिरता और देश में आपातकाल का सामना करते हुए फिर से चुनाव में जाना पड़ सकता है।
माओवादी कमांडर प्रचंड के साथ कई समस्याएं हैं। उन्होंने नेपाल में चुनाव से पहले ही कह दिया था कि उन्हें हार के नतीजे स्वीकार नहीं होंगे। मजे की बात देखिए कि कल तक भारत में और सीमावर्ती शहरों में शरण लेते और लुक-छिपकर अपनी जान बचाते फिरते रहे नेपाल के सर्वाधिक वांछित विद्रोही कमल दहल प्रचंड नेपाल के शांति पुरस्कार के लिए भी घोषित किए जा चुके हैं। चीन के दत्तक पुत्र कहे जाने वाले प्रचंड धमकी भरे अंदाज में भारत से संधियां तोड़ने की भाषा बोलते रहे हैं, इसका भी विश्व समुदाय और नेपाल में राजनीतिक दृष्टि से गंभीरता से संज्ञान लिया गया है। इससे इस बात के साफ संकेत नज़र आए हैं कि नेपाल में माओवादियों की सरकार बनने पर चीन जो चाहेगा वह ही होगा। प्रचंड को भारत से संधि तोड़ने की गुरू शिक्षा भी चीन से ही मिली है। यही चीन इन माओवादियों को कभी आवारागर्द और कुकर्मी कहता आया है। प्रचंड भली-भांति जानते हैं कि जिस दिन भारत ने नेपाल से हाथ खींच लिए उसी दिन नेपाल के बाज़ारों और नेपाल की जनता में त्राहि-त्राहि मच जाएगी। भारत-नेपाल की खुली सीमा एक तरह से नेपाल की आर्थिक जीवन रेखा है। माओवादी नेपाल में पूंजी निवेश करने वालों को हमेशा से निशाना बनाते आ रहे हैं उससे भारत और नेपाल के बीच महाकाली संधि भी अटकी पड़ी है। यदि यह लागू हो गई होती तो भारत को ऊर्जा मिलती और नेपाल को बिजली बेचने का लाभ पहुंचता।
माओवादी चाहते हैं कि उसके करीब बीस हजार हथियारबंद सदस्यों को नेपाली सेना में भर्ती मान लिया जाए। दूसरी तरफ नेपाल के सेनाध्यक्ष एकमंगत कटवाल कह रहे हैं कि उन्हें चुनी हुई सरकार के फैसले को मानने में तो कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इस फैसले को लागू करने से एक मत विशेष के लोगों को भर्ती करने के अनेक खतरे होंगे। तब हो सकता है कि नेपाल में कोई और बड़ी समस्या खड़ी हो जाए। सच पूछिए तो चीन चाहता है कि नेपाल टूट जाए। उसकी नीति, माओवादियों के कंधों पर बंदूक रखकर नेपाल के अधिकांश भाग पर कब्जा करके वहां अपने सैनिक ठिकाने की है। इसमें नेपाल के सशस्त्र माओवादी चीन की काफी मदद कर सकते हैं। माओवादी वैसे भी चीन के समर्थन के बिना नहीं चल सकते जिससे माओवादियों को चीन की बहुत शर्ते माननी होंगी। चीन ने इसी नीति के तहत माओवादियों को चुनाव में धन बल नैतिक और कूटनीतिक समर्थन भी दिया। भारत-अमरीका सहित विश्व समुदाय ने नेपाल के चुनाव में माओवादियों के पक्ष में चीन की दिलचस्पी को अत्यंत करीब से अनुभव किया है। माओवादियों के बड़े नेता बाबूराम भटराई और प्रचंड में इस बात को लेकर मतभेद भी बताए जाते हैं कि वह चीन के इतना करीब क्यों जा रहे हैं। इससे माओवादियों के हाथ से राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति का पद तो चला ही गया है। यही बात माओवादियों की ओर से आने वाले समय में नेपाल के लिए एक बड़े कूटनीतिक और राजनीतिक संकट के रूप में उभर कर सामने आने वाली है।
माओवादी कमल प्रचंड के सामने सबसे पहली चुनौती नेपाल के महाराजा ज्ञानेंद्र शाह से उनका राजमहल छीनने या खाली कराने की थी लेकिन महाराज ज्ञानेंद्र ने इसे बिना ही प्रतिरोध के खाली करके अपना राजमुकुट भी संविधान सभा को सौंप दिया। दूसरी चुनौती महाराज को नेपाल से बाहर करने की है जो उनके लिए बहुत मुश्किल है और इस पर उन्हें नेपाली जनता का शायद ही उतना समर्थन मिले। तीसरी चुनौती भारत के सामने अकड़ दिखाकर संधि तोड़ने की है, वह भी मुश्किल लगती है क्योंकि नेपाल की जनता में इससे जो त्राहि-त्राहि मचेगी उसका सामना नेपाल का नया प्रजातंत्र शायद ही कर पाए। चौथी चुनौती भारत से सहयोग लेने की है जो कि तभी संभव है जब इस बात की गारंटी होगी कि नेपाल में चीन की सामरिक गतिविधियां नहीं होंगी। पांचवी चुनौती अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने अपने को आतंकवादियों के बजाए लोकतांत्रिक और प्रजातांत्रिक सिद्घ करने की है। माओवादियों के लिए यह भी संभव नहीं है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को माओवादियों पर यकीन नहीं है। छठी बड़ी चुनौती नेपाल की गरीब जनता को वायदों के जो सब्जबाग दिखाए गए हैं, उन्हें पूरा करने की है। इनमें से किसी एक भी कसौटी पर खरे नहीं उतरने पर माओवादियों की नेपाल जनता में कितनी बदतर स्थिति होगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
नेपाल में चीन की भारी दिलचस्पी के कारण ही अमरीका के कान खड़े हुए हैं। अमरीका नहीं चाहता कि चीन नेपाल में हद से ज्यादा टांग अड़ाए। नेपाल में भी तिब्बतियों का भारी जोर है और चीन चाहता है कि नई सरकार वहां से तिब्बतियों को भगाए और विद्रोही तिब्बती नेताओं को चीन को सौंप दे। चीन की बात मानना प्रचंड की राजनीतिक मजबूरी होगी और यहीं से नेपाल में आपसी टकराव की शुरूआत निश्चित है। नेपाल की हिंदूवादी जनता का तिब्बतियों को भारी समर्थन मिलता रहा है। जबकि माओवादी, नेपाल की राजशाही और हिंदुवादियों के खिलाफ माने जाते हैं। अप्रैल में भारत में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद के तुलसीपुर में माओवादियों की विघटन और विध्वंसकारी हरकतों को लेकर विश्व हिन्दू महासंघ की अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक भी हुई थी जिसमें इस बात पर चिंता प्रकट हुई कि माओवादी नेपाल के हिंदू राष्ट्र के स्वरूप को नष्ट करके चीन समर्थित कम्युनिस्ट गतिविधियों को बंदूक की नोंक पर लागू कर रहे हैं।
नेपाल की तराई और उससे लगे भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के बलरामपुर सहित सीमावर्ती इलाके में मधेशियों का प्रभाव है, जहां उनका माओवादियों से झंझट होता रहता है। मधेशी नेपाल की राजशाही के समर्थक माने जाते हैं। ध्यान रहे कि बलरामपुर के पूर्व राजा धर्मेंद्र प्रताप सिंह नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र के साढ़ू लगते हैं। हिंदू नेताओं का कहना है कि दुनिया में सौ करोड़ हिंदुओं का शोषण हो रहा है और यह इसलिए है कि हिंदू ऊंच-नीच की जातियों में बंटे हुए हैं। कश्मीर में लाखों हिंदू वहां से पलायन करके कैंप में रह रहे हैं। चीन के इशारे पर माओवादी नेपाल के हिंदू स्वरूप को नष्ट कर रहे हैं। श्रीलंका और भूटान से अधिकांश हिंदू भगाए जा चुके हैं। मालदीव में भी हिंदुओं पर अत्याचार हो रहे हैं और कई हिंदू नेता वहां की जेलों में बंद हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हिंदू किसी तरह समझौते करके वहां रहते हैं। प्रचंड इस समय भारत के पश्चिम बंगाल प्रांत में दार्जिलिंग क्षेत्र को जातीय आधार पर नेपाल में शामिल करने का मुद्दा उठाकर नेपाल को भारत के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने भारत पर दबाव बनाने के लिए नेपाल से 1950 की संधि और 1996 में हुई महाकाली संधि को तोड़ने की बात कही है। प्रचंड के हाथ में सत्‍ता आ गई है,  दे‌खिए अब आगे क्‍या होता है!

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