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नई दिल्ली। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने यूपीए सरकार के विश्वास-मत के अवसर पर भारी दबावों के बावजूद अपने लोकसभा अध्यक्ष और अपने राष्ट्र-धर्म से विचलित न होकर उन करोड़ों देश-वासियों में अपने और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी आस्था का संचार किया जो कुछ जिम्मेदार कहे जाने वाले राजनीतिक दलों के निहित स्वार्थ देखकर इस अवसाद की ओर बढ़ रहे थे कि बस अब सब-कुछ खत्म ही हो चला है क्योंकि देश के कर्णधार नैतिक मूल्य और राजनीति छोड़कर कूटनीति भी नहीं बल्कि कपटनीति पर उतर आए हैं।
यूपीए से अलग हो जाने के बाद वामदलों ने जिस प्रकार लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी पर इस्तीफे के लिए दबाव बनाकर और विश्वासमत के बाद उन्हें पार्टी से निकाला गया, उसे देशवासियों ने पसंद नहीं किया। वामपंथियों का सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला जाना ऐसा लगा जैसे उन्होंने कोई राष्ट्रद्रोह का काम किया हो। इसमें कम्युनिस्ट पार्टी के नैतिक मूल्यों की पोलपट्टी खुल गई है, मगर सोमनाथ चटर्जी के चेहरे पर कोई भी शिकन नहीं है क्योंकि उन्होंने अपना राष्ट्रधर्म निभाया है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म की शेखी बघारने वालों को सोमनाथ दा ने सीख दी है कि राष्ट्रवाद किसे कहते हैं और असली राष्ट्रधर्म क्या है। इससे सोमनाथ चटर्जी ने करोड़ों देशवासियों के मन में अपनी जगह बनाई है, अथाह सम्मान और विश्वास पाया है।
लोकसभा में हमेशा मान मर्यादा और वहां के नैतिक मूल्यों से समृद्घशाली परंपराओं से भटक कर इस्तीफा देने के लिए उन पर भारी दबाव बनाया गया था। उन्हें सीख दी गई कि देखिए, अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ नहीं जा रहे हैं। सोमनाथ चटर्जी कोई आज के वामपंथी नहीं है जो उन्हें कोई शिक्षा दे कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? सोमनाथ चटर्जी जान गए थे कि विश्वासमत के विरोध में असल खेल क्या हो रहा है इसलिए उन्होंने अपने राष्ट्रधर्म की ताकत से उस खेल को निष्फल कर दिया। इसलिए बाईस जुलाई को केवल यूपीए के विश्वासमत हासिल करने का दिन ही दिन नहीं था बल्कि एक वरिष्ठ वामपंथी चिंतक की कड़ी परीक्षा का भी दिन था जिसमें उन्हें सौ में से सौ नंबर मिले।
शाइनिंग इंडिया के नायक और प्रखर राष्ट्रवादी अटल बिहारी वाजपेयी को सोमनाथ चटर्जी से राष्ट्रवाद की शिक्षा जरूर मिली होगी। क्योंकि सोमनाथ चटर्जी ने भारत और विदेशों में रह रहे भारतीयों को राष्ट्रवाद का सही मतलब समझा दिया है। वे चट्टान की तरह अपने देश के साथ खड़े रहे और विश्वासमत के विरोध के नाम पर किसी को प्रधानमंत्री बनवाने के एक सूत्रीय कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। इसीलिए उन्होंने साफ-साफ कहा कि उन्हें पार्टी से निकाले जाने की कोई चिंता नहीं है और वे अब पार्टी में वापस जाना भी नहीं चाहते। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में बाइस जुलाई इसलिए भी हमेशा याद की जाएगी क्योंकि इस दिन भारतीय संसद में धर्म निरपेक्ष और राष्ट्रवाद के चेहरे लगाए घूमने वाले बेनकाब हुए हैं। यह वो तारीख है जिस दिन यूपीए सरकार के विश्वासमत के रूप में भारत का अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ एटमी करार का मार्ग प्रशस्त हुआ।
एक और कारण से इस तारीख को याद रखा जाएगा क्योंकि लोकसभा में विपक्ष के नेता और राष्ट्रधर्म के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी ने अपने कुछ सांसदों को नियम एवं परंपरा के विरुद्ध जाकर सांसदों को एक करोड़ रुपये के साथ सदन में आने की शह दी और लोकसभा में नोट लहराने की छूट दी। इस रकम को विश्वासमत के समर्थन के बदले घूस की पेशगी बताया गया है। ऐसा पहली बार हुआ जब भाजपाई सदस्य नोटों की गड्डियों से भरा बैग लेकर संसद के भीतर पहुंच गए। इससे लोकतंत्र और संसद का मंडप ही शर्मसार हुआ। भले ही इस रकम को अगले दिन सरकारी खजाने में जमा कर दिया गया और संसद भवन थाने में मुकदमा दर्ज कराया गया। मामले की जांच भी हो रही है। इसमें कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी को जब लोकसभा में प्रवेश और परंपराओं का ज्ञान था तो उन्होंने यह रकम सीधे लोकसभा के भीतर क्यों आने दीं?
दूसरा प्रश्न यह है कि लोकसभा की सुरक्षा व्यवस्था को इस प्रकार क्यों खतरे में डाला गया? लोकसभा में विपक्ष के नेता होने के नाते उनका यह कर्तव्य नहीं था कि वे सर्वप्रथम विधिक प्रक्रिया को अपनाते। एक करोड़ रुपए भाजपा सांसद किस प्रकार बैग में लेकर सदन में आए और जब उन्हें यह रकम दी गई थी तो उन्होंने सदन की गरिमा के विरुद्ध जाकर इसका सदन के पटल पर प्रदर्शन क्यों किया? इसकी जानकारी तुरंत ही लोकसभा अध्यक्ष को क्यों नहीं दी गई और इसके लिए कानून में निहित विधिक प्रक्रिया के तहत तुरंत थाने में रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं कराई? यदि यह रिश्वत थी तो इसे प्राप्त करने वाले भाजपा सांसद इसे लेने के लिए उनके आवासों पर क्यों गए? इसमें स्टिंग आपरेशन किसलिए कराया गया? यह हो सकता है कि समर्थन के बदले घूस का लालच दिया गया हो लेकिन इसका पर्दाफाश करते समय लोकसभा के पटल का जिस तरह से इस्तेमाल किया गया यह क्या उचित था? क्योंकि उस समय लोकसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण चल रहा था और दुनिया भारतीय संसद में इस कृत्य को देख रही थी जिसमें लोकसभा के भीतर की गरिमा को काफी नुकसान पहुंचा। इससे भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, वामदल और बसपा जैसी जातिवादी पार्टियां खुश हो सकती हैं।
इस राजनीतिक घटनाक्रम का देश की सामान्य जनता ने गंभीरता से संज्ञान लिया है। भारतीय जनता पार्टी के सांसदों ने विश्वासमत पर जो क्रास वोटिंग की है वह ही भाजपा की अंतरआत्मा की आवाज थी। बाकी भाजपा और शिवसेना के सांसद अपनी अंतरआत्मा से गद्दारी कर रहे थे। एटमी डील के बारे में शिवसेना का नजरिया भारत विरोधी क्यों बना? वह देश में मुस्लिम कट्टरपंथ और आतंकवाद के खिलाफ है ना? एटमी डील इस देश के मुस्लिम कट्टरपंथ या आतंकवाद का क्या समर्थन करती है?
शिवसेना के नेता बाल ठाकरे देश में किस राष्ट्रवाद की बात करते हैं? पहले उनके भतीजे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में अपने ही देश के उत्तर भारतीयों को वहां से खदेड़ा, उन पर हमले करवाए, हिंदी के खिलाफ जहर उगला और फिर यही काम बाल ठाकरे ने किया यह कौन सा राष्ट्रवाद है? यह कौन सा हिंदूवाद है? बाल ठाकरे क्या इस बात का दावा करते हैं कि उसके शिवसैनिकों के पाकिस्तान में बैठे दाऊद इब्राहिम जैसे आतंकवादियों और देश के विघटनकारियों से कोई संबंध नहीं है? शिवसेना के ही पता नहीं कितने ऐसे नेता हैं जो आज भी किसी न किसी रूप में दाऊद जैसे अनगिनत विघटन और विध्वंसकारियों के साथ अपने व्यावसायिक रिश्ते रखे हुए हैं? कम से कम लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने तो ऐसा नहीं किया जिनके विरुद्ध अकसर आडवाणी और बाल ठाकरे ने भी अप्रिय बयान दिए हैं।