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लीडरों से निराश-हताश भारतीय राजनीति !

दिनेश शर्मा

लोकसभा-loksabha

देखा? किस तरह से भारतीय राजनीति देश में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रहित जैसे मुद्दों पर घोर विघटन पतन और अपमान का सामना कर रही है। देश में लीडरशिप का जो पतन हुआ है यह उसी का परिणाम है कि लोकसभा में यूपीए सरकार के विश्वासमत के लिए खरीद-फरोख्त का आरोप लगाते हुए नोटों की गड्डियां लहराईं गईं। नोक-झोंक, भारी हंगामे एवं बार-बार पीठ की अवहेलना पर लोकसभा अध्यक्ष और वाम राजनीति के प्रखर चिंतक सोमनाथ चटर्जी को निराशा भरे मन से कहना पड़ा कि ‘भारतीय राजनीति अब तक के सबसे गिरे स्तर तक पहुंच गई है।’ सदन में सरकार का विश्वास-मत हासिल करने के अगले ही दिन उन्हें माकपा ने पार्टी से बर्खास्त कर दिया। इसलिए नहीं कि उन्होंने पार्टी लाइन से विद्रोहकर यूपीए सरकार के पक्ष में कोई मतदान किया बल्कि केवल इसलिए कि यूपीए सरकार के विश्वासमत के दिन वे दलीय राजनीति से ऊपर क्यों गए और क्यों लोकतंत्र और देश के साथ खड़े हुए? सोमनाथ चटर्जी वामनेताओं की सच्चाई काफी अच्छी तरह से जानते हैं फिर भी वे चुप हैं। पर नैतिकतावादी लंबरदारों के लिए वे इस लाइन में बहुत कुछ कह गए कि ‘भारतीय राजनीति अब तक के सबसे गिरे स्तर तक पहुंच गई है।’ उनके अपने ही वाम मित्रों के नैतिकता के पाठ पर सोमनाथ दा का गुस्सा संसद में ही फूटा।
सोमनाथ दा ने भारतीय राजनीति की सच्चाई को चुप रह कर ही व्यक्त कर दिया है कि भारत की जनता हर एक पल सौदागर राजनेताओं, ऊंचे और संवैधानिक पदों पर बैठे अनेक भू-माफिया राजनेताओं, अफसरों अपराधियों के खतरनाक गठजोड़ से रोज जूझती आ रही है। इसीलिए आज पिद्दी जैसे देश भी भारत को धमका रहे हैं और उसे अपनी मनमर्जी के समझौतों के लिए मजबूर कर रहे हैं। एटमी करार भारत के हित में है कि नहीं यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन दुनिया भारत में लीडरों के राजनीतिक और नैतिक पतन की पराकाष्ठा जरूर देख रही है। वह देख रही है कि भारत के लीडर और राजनीतिक दल किस तरह बिकते हैं। वह देख रही है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए जीभ निकाले घूम रहे महाभ्रष्ट और चार्जशीटेड नेता कुर्सी के लिए कैसे-कैसे समझौते करने को तैयार हो जाते हैं। दुनिया ने और भारत की जनता ने देखा और जाना कि देशहित के गंभीर मुद्दों पर भी या तो भारत के राजनीतिज्ञ एक मेज पर कभी बैठते नहीं हैं और यदि कभी बैठ भी जाते हैं तो वहां पर भी उनकी निगाहें देश को ताक पर रखकर खुद के नफे नुकसान और उसके राजनीतिक अर्थ तलाशा करती हैं-समाधान नहीं। भारतीय मीडिया भी इन्ही मे से एक है।

इन दो दशकों में तो देश ने कई गंभीर आंतरिक मतभेदों, आर्थिक सामाजिक और धार्मिक समस्याओं के समाधान में भारतीय राजनीति और उसके दिग्गज लीडरों की शर्मनाक विफलताओं के अनेक मनहूस दौर देखें हैं। चतुर अंग्रेजों को डिगा देने वाली राजनीतिक इच्छा शक्ति अब कैसे दम तोड़ रही है उसे जनता देख रही है। किसी भी प्रकार से संसद में जाने, मंत्री बनने या सरकार बनाने के लिए न जाने कितने कुंवर नटवर सिंह घटिया से घटिया स्तर पर उतरकर बेमेल समझौते करने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। जैसा कि संसद में भी विश्वासमत पर हुआ। अफसोस! इन दो दशकों ने देश को अधिकांश रूप से मनहूस और बोदे, जातिवाद में डूबे भ्रष्टाचार से बिजबिजाते नेता दिए हैं। राजनीतिक स्वच्छता की तलाश, अब चील के घोंसले में मांस की तलाश करने जैसी दिखाई देती है।
इस दौर में न केवल राजनीति का दर्दनाक पतन हुआ है अपितु न्याय पालिका और नौकरशाही भी संदेह और अपवादों की चपेट में है। ऐसा लगता है कि जैसे न्यायपालिका अब कार्यपालिका का कार्य करने लगी है। राज्य की नौकरशाही का जनसामान्य की समस्याओं और उनके निराकरण से मानो वास्ता खत्म हो गया है। आज हर कोई नौकरशाह किसी कार्य को या तो फंसाता दिख रहा है या उसे करने या कराने के लिए कोर्ट का सहारा ढूंढता नज़र आ रहा है। मायावती जैसी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने नौकरशाही को ऐसा बना दिया है कि उसकी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। मंत्रियों विधायकों और उन जैसों का केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासित वैभव पर ध्यान रह गया है। नौकरशाह साफ-साफ कहता है कि उसका किसी से अगर वास्ता है तो अपने नफे नुकसान से।

इस तरह देश की नौकरशाही ने नागरिक प्रशासन को अत्यधिक निराश किया है। देश के खजाने के अरबों रुपए इनकी ढपोरशंखी नीतियों और भ्रष्टाचार जनित रणनीतियों पर खर्च होते हैं। इन्हें देश में श्रेष्ठ नागरिक प्रशासन के लिए चुना गया था लेकिन ये भी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से भी बदतर होते जा रहे हैं। इनकी कार्यप्रणाली इतनी बदनाम और ध्वस्त है कि उस पर जनसामान्य भी यकीन करने को तैयार नहीं है। लीडरों की बात हो रही थी और कलम नौकरशाहों और न्यायपालिका और मीडिया वालों तक पहुंच गई। माफ कीजिएगा, किसी को बदनाम करने का इरादा नहीं है लेकिन अगर आप इस कथन से सहमत नहीं हों तो इस पोर्टल पर दिख रहे ई-मेल पर संपादक को ई-मेल जरूर कीजिएगा!
लीडरों के कारण देश में एक दारोगा से लेकर डीजी पुलिस तक अपनी नौकरी गिरवी रखकर लूटखसोट में शामिल हैं। बदमाश, गुंडे और माफियाओं के लिए लीडर और पुलिस आदर्श शरणदाता के रूप में बदल गए हैं। मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के आवास देश के अराजकतत्वों के सुरक्षित नेटवर्क के रूप में तब्दील हो रहे हैं। जिन्हें पुलिस ढूंढती फिर रही है वह नेताओं के घरों में या सरकारी गेस्ट हाउसों में या प्रेस क्लबों में मौज मार रहे हैं। जिन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वह बीमारी का बहाना बनाकर इलाज के नाम पर पंचसितारा अस्पतालों में भर्ती होकर वहीं से अपना राजनीतिक रैकेट चला रहे हैं। जेलें तो केवल उन्हीं के लिए यातना घर हैं जिनका कोई सोर्स-सहारा नहीं है। इस व्यवस्था में सुधार के नाम पर न जाने कितने आयोग गठित हो चुके हैं। न जाने कितने भूतपूर्व जजों के लिए भी ऐसे आयोग बुढ़ापा संवारने का जरिया बने हुए हैं। जिन आयोगों को गठित किया जाता है, उनकी रिपोर्ट पांच सितारा होटलो में कैमरों की चमचमाती फ्लैश लाइटों के सामने पेश की जाने के बाद अंधेरे में चली जाती हैं। जब लीडरों का रोल आता है तो लीडर उन पर चुप्पी मार जाते हैं।
लीडरों की ही फौज के कारण देश में जाति-धर्म और क्षेत्र के नाम पर नंगा नाच हो रहा है। जनसंख्या जैसी महामारी पर कोई लीडर बोलने को तैयार नहीं है। इसी लीडर ने बच्चों को पालियो ड्राप्स पिलाने से रोक दिया। उसके वोटों को बेचने का व्यवसाय फल-फूल रहा है। वोटरों की जागीरें बंट गई हैं। मंडी सी लगी है और लीडर बोली लगा रहे हैं। वोटरों की मालकिनों और महारानियों ने तो इसे महामारी बना दिया है। इन्होंने राजनीतिक प्रतिभाओं को पीछे ढकेल कर ऐसे घटिया नेताओं को आगे बढ़ा दिया है जो केवल लूट-खसोट ही कर रहे हैं। जनहित राष्ट्रहित और जनसामान्य से उनका कोई वास्ता नहीं है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और न्यायाधीश आज जो नैतिक बल की सीख दे रहे हैं वह लीडरों के तो पल्ले ही नहीं पड़ रही है। उन पर जनसामान्य केवल हंस रहा है। न्याय मंदिरों पर लोकापवाद उठ रहे हैं जिससे न्यायपालिका पर भी एक प्रश्नचिन्ह है। गोष्ठियों और कार्यशालाओं में पंचसितारा संस्कृति की तरह से इकट्ठे होकर जिस प्रकार की चर्चाएं होती हैं, वास्तव में उनकी उपयोगिता जनसामान्य से बहुत दूर रहती है। यहां ताकतवर का झूंठ सच होता है और कमजोर का सच झूठ होता है। उसी पर डंडे पटकाए जाते हैं। उसकी थाने से लेकर कचहरी तक में पिटाई होती है, उसकी सुनवाई दुर्लभ है। उसके दिए आवेदनों की मजाक उड़ाई जाती है और भ्रष्ट तरीकों से मनोनीत होकर या जोड़तोड़ से कुर्सी पर कब्जा जमाए लीडरों की आवभगत होती है।
भारत लुटेरे शासकों और लीडरों का शिकार होता आ रहा है। जितना इसे अंग्रेजों एवं मुगलों ने लूटा है, अपवादों को छोड़कर उससे ज्यादा इसे आधुनिक लोकतंत्रवादी और नौकरशाह लूट रहे हैं। इन तीन दशकों में तो हद ही हो गई है। देश लीडरों और नौकरशाहों के बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों का ही सामना नहीं कर रहा है बल्कि राष्ट्रहित के मामलों में भी सौदेबाजी हो रही है। महाराष्ट्र हो या उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश हो या राजस्थान, बिहार हो या हिमाचल प्रदेश, देश के पूर्वोत्तर राज्य हों या दक्षिण भारत, सभी राज्यों में कई प्रमुख राजनेता गंभीर किस्म के भिन्न-भिन्न आरोपों का सामना कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश इसका सबसे ज्यादा शिकार हुआ है जहां मायावती के शासनकाल में भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा ही हो गई है। सबसे ज्यादा निराशाजनक स्थिति तो यह है कि यह भ्रष्टाचार अकेले मायावती ने ही नहीं किया बल्कि उनकी सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी के कुछ प्रमुख नेता और भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी के कुछ खास कृपा पात्र इनमें शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य में जब भी मायावती मुख्यमंत्री हुईं उनमें इस बात की कोशिश कभी नहीं देखी गई कि उनके जातिवाद, और नैतिक मूल्यों के पतन, भ्रष्टाचार के बारे में जनसामान्य में जो धारणा बन रही है और जो लोकापवाद उठ रहे हैं उनके धब्बों को वह अपने स्वच्छ प्रशासन से धोएं। उन्होंने भ्रष्टाचार के हर स्रोत को अपने कुतर्को से पुष्ट करने की कोशिश की हैं। विश्वासमत के बहाने प्रधानमंत्री बनने की जोड़-तोड़ में उन्हें जिस गठजोड़ में खड़े देखा गया वह राजनीतिक भ्रष्टाचार की एक बड़ी मिसाल ही मानी जाएगी। एक बड़े राजनेता के लिए यह स्थिति अत्यंत निराशाजनक है, खासतौर से तब जब उससे करोड़ों लोगों की न्याय और सुख-समृद्धि की उम्मीदें लग जाएं।
मायावती यह सिद्ध करने की कोशिश करती हैं कि वह जो कर रही हैं उसे मान्यता मिल गई है और अभी नहीं मिली है तो मिल ही जानी है। मगर उन्होंने देख लिया है कि वामदल मायावती के भ्रष्ट आचरणों के साथ खड़े नहीं हुए। वे मायावती की खासी फजीहत कराकर अलग हो लिए। मायावती दलित समाज में आज भले ही इस भ्रम के साथ खड़ी हैं कि उनके अलावा कोई और नेता नहीं है मगर एक दिन इसी समाज में मायावती के कारनामों के खिलाफ ज्वालामुखी सा जरूर फूटेगा।

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