डॉ अमरीश सिन्हा
Wednesday 13 May 2015 06:54:28 PM
डॉ दौलत सिंह कोठारी देश के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक, शिक्षाविद् और नीति नियंता थे। उनका हमेशा यह मानना रहा कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आतीं, भारतीय साहित्य और संस्कृति का ज्ञान नहीं है, उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है। साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है। कहने का भाव है कि आखिर हिंदी की और कितनी अग्निपरीक्षा होगी? पिछले दिनों एक संगोष्ठी में जाना हुआ। एक प्रतिभागी का कहना था कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखने से हमें परहेज नहीं करना चाहिए, बल्कि इसका स्वागत किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिए कि एसएमएस, कंप्यूटर, इंटरनेट में रोमन लिपि के सहारे हिंदी लिखने में आसानीहोती है, इसलिए समय की जरूरत के मुताबिक इस बात पर जोर देना हमें बंद करना चाहिए कि हिंदी को हम देवनागरी लिपि में लिखें। उन्होंने यह भी कहा कि आज कल फिल्मों की स्क्रिप्ट, नाटकों की स्क्रिप्ट, नेताओं के भाषण के साथ-साथ सरकारी कार्यालयों में उच्च अधिकारियों के संबोधन–अभिभाषण, वक्तव्य रोमन लिपि में लिखे होते हैं। देवनागरी में टाइप करने में समय अधिक लगता है। टाइप करना कठिन भी है। रोमन में मोबाइल में भी लिखना सरल है, इसलिए रोमन लिपि में हिंदी लिखने से हिंदी का प्रचार तेजी से होगा। सरसरी तौर पर ही ये बातें जंचती हुई लग सकती हैं, परंतु यदि हम इन्हें इतिहास, समाज और भाषायी संस्कृति के पहलुओं पर विचार करते हुए देखें तो कई महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं, जिनको नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता और किया तो यह इतिहास को झुठलाना होगा।
भाषा वस्तुत: एक सदा विकसित होने वाला और बदलने वाला क्रियाकलाप है, जिसके पीछे सबसे बड़ा योगदान उस भाषा के मूलभाषियों का होता है। हिंदी भाषा उसका अपवाद नहीं है। हो भी नहीं सकती। हालांकि यह भी उतना ही सत्य और खरा है कि हिंदी को विकसित करने में हिंदीतर लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है। दक्षिण भारत के भाषा-भाषियों के मध्य हिंदी का प्रचार-प्रसार इन हिंदीतर भाषियों की साधना का ही प्रतिफल है। बहरहाल, भाषा विज्ञान कहता है कि किसी भाषा का प्रसार तथा चरित्र उस भाषा का उपयोग करने वाले लोगों में लगातार परिभाषित और पुन: परिभाषित होते रहने में निहित है। औपनिवेशिक अतीत वाले क्षेत्रों में उपनिवेशकों की भाषा के शब्दों को भी खुलकर अपनाया जाता है। भारत के साथ भी ऐसा ही है। जापान, क्यूबा, तुर्की, निकारागुआ, फ्रांस, जर्मनी आदि जैसे विश्व के कई देशों के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है, इसलिए अधिकांश देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति मिलते ही अपनी मूल भाषा के उपयोग के वास्ते कमर कस ली। नतीजा सामने है-न क्यूबा में अंग्रेजी या अन्य औपनिवेशिक भाषा में कामकाज होता है, न जापान, फ्रांस, जर्मनी, वियतनाम, पोलैंड आदि देशों में कामकाज होता है, भले ही, कामकाज सरकारी हो या निजी कंपनियों में।
तुर्की के उदाहरण से तो हम सब वाकिफ हैं। मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की के औपनिवेशिक दासता से छुटकारे के तुरंत बाद पूरे देश में तुर्की के इस्तेमाल और व्यवहार का फरमान जारी कर दिया। यह हम और हमारा भारतीय समाज ही है, जो स्वाधीनता के 67 वर्ष बाद आज भी इसी एक मुद्दे पर रस्साकशी में जुटे हैं। आपको याद होगा डॉ दौलत सिंह कोठारी का एक नाम। देश के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक, शिक्षाविद् और नीति नियंता थे वे। उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन के बारे में गहराई तक समझ थी। उनका हमेशा यह मानना रहा कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आतीं, भारतीय साहित्य और संस्कृति का ज्ञान नहीं है, उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है। उन्होंने कहा था कि साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है। भारत सरकार ने उनके निर्देशन में ही शिक्षा के संबंध में कोठारी समिति का गठन किया था और उनकी सिफारिशों पर ही वर्ष 1979 से सभी प्रशासनिक सेवाओं में पहली बार अपनी भाषाओं में लिखने की छूट मिली।
अद्भुत परिणाम देखने को मिले इसके! परीक्षा में बैठने वालों की संख्या एकबारगी ही दस गुना बढ़ गई। ग़रीब घरों के मेधावी छात्र आईएएस बनने लगे। आदिवासी, अनुसूचित जाति की पहली पीढ़ी के बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए। रिक्शा चालक का लड़का आईएएस बन सका और दूसरे के घरों में काम करने वाली की लड़की भी आईएएस बन गई, वरना 1979 से पहले सिर्फ धनाढ्य अंग्रेजीदां की संतानें ही जिलाधीश की कुर्सियों पर काबिज़ हो पाती थीं। संविधान में समानता के इसी आदर्श तक पहुंचने की लालसा हमारे संविधान निर्माताओं के मन में थी। यद्यपि वर्ष 2013 की शुरूआत में इस पद्धति को बदलने की कोशिश की गई। एक डर सा छा गया देश के असंख्य युवक-युवतियों के मन में। संसद में बहस हुई और सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं का परीक्षा का माध्यम बनाए रखने की पद्धति पूर्ववत रखने का फैसला ले लिया गया। यह सुखद और सुकुन भरा पक्ष रहा। वह मसला ज्यों-का-त्यों रह जाता है कि हिंदी के लिए रोमन लिपि के इस्तेमाल के क्या-क्या खतरे हैं? महज इस वजह से कि हमें मोबाइल पर टाइप करते वक्त रोमन का प्रयोग सरल लगता है, रोमन लिपि की तरफदारी नहीं की जा सकती।
यह विषय वस्तुपरक (सब्जेक्टिव) भी है। जो कार्य किसी एक के लिए आसान हो सकता है, वही दूसरे के लिए कठिन और दुरूह भी हो सकता है। ये दोनों स्थितियां व्यक्ति की क्षमता, योग्यता, उम्र, परिवेश, संस्कार और कौशल आदि कई गुण-दोषों पर निर्भर करती हैं। वैसे भी अब एंड्राइड फोनों और कम्प्यूटरों दोनों जगह देवनागरी की वर्णमाला स्क्रीन पर एक क्लिक पर डिस्पले हो जाती है। आप हर चौकोर खाने की उंगली से छूते जाएं, टेक्स्ट टाइप होता जाएगा। कहां क्या परेशानी है? इस संगोष्ठी में ही एक युवा भी अपने एंड्राइड फोन पर इस सुविधा को प्रदर्शित करते हुए सभी के समक्ष देवनागरी लिपि की पैरवी करता हुआ दिखा। यह देखकर युवा वर्ग पर लगने वाला यह आरोप भी खारिज़ होता है कि अंग्रेजी की मुख़़ालफत करने वाला वर्ग युवा वर्ग है। हिंदी में सरकारी कामकाज को कई लोग कठिन मानते हैं। उच्च शिक्षा हिंदी या मातृभाषा में नहीं प्राप्त की जा सकती, न ही विज्ञान और तकनीकी संबंधी ज्ञान अंग्रेजी के इतर भारतीय भाषाओं में हासिल किया जा सकता, यह मानना सिरे से मिथ्या है। कारण यह है कि जापान, चीन और दोनों कोरियाई देश, जर्मनी और यहां तक इजरायल भी अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान नहीं करते हैं, जबकि दुनिया में ये देश तकनीकी प्रगति के प्रणेता माने जाते हैं।
इस संदर्भ में 'सरल' और 'कठिन' पर थोड़ी चर्चा जरूरी है। भाषा के बनावटीपन को छोड़ दें (जैसे, ट्रेन के लिए 'लौहपथगामिनी' या ट्रैफिक सिग्नल के लिए 'यातायात संकेतक' का प्रयोग) तो क्या सरल है और क्या कठिन, यह अक्सर उपयोग की बारम्बारता पर निर्भर करता है। बार-बार उपयोग से शब्दों से परिचय प्रगाढ़ हो जाता है और वे शब्द हमें आसान प्रतीत होने लगते हैं। जैसे-'रिपोर्ट' के लिए महाराष्ट्र में 'अहवाल' शब्द लोकप्रिय है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 'आख्या' का प्रयोग होता है। बिहार में 'प्रतिवेदन' का, तो कई अन्य जगह देवनागरी में 'रिपोर्ट' ही लिखी जाती है। उर्दू में पर्यायवाची शब्द है-रपट। इसी तरह 'मुद्रिका (दिल्ली की बस सेवा में प्रयुक्त शब्द), विश्वविद्यालय, तत्काल सेवा, पहचान पत्र प्रचलित शब्द हैं, गरज़ कि ये संस्कृत मूल शब्द हैं। स्कूली छात्र–छात्राओं के लिए बीजगणित (Algebra), अंकगणित (Arithmetic), ज्यामिति (Geometry), वाष्पीकरण (Veporisation) आदि संस्कृत मूल शब्द आसान हैं, क्योंकि प्रयोग की बारम्बरता यहां लागू होती है। क्वथनांक, गलनांक, घनत्व, रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, सिद्धांत, गुणनफल, विभाज्यता नियम, समुच्चय सिद्धांत, बीकर, परखनली, कलन शास्त्र आदि भी ऐसे ही शब्द हैं। इनका प्रथम प्रयोग दुरूह प्रतीत हो सकता है, पर निरंतर प्रयोग इन्हें हमारे लिए सरल बना देता है।
भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल जरूरी है। अंग्रेजी के पैरोकारों का मानना है कि अंग्रेजी समृद्ध भाषा है, अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा है। शेक्सपीयर, मिल्टन और डारविन जैसे मनिषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलिया में अंग्रेजी बोली जाती है, इस बात को स्वीकारने में कोई गुरेज़ नहीं है। लेकिन अंग्रेजी एकमात्र समृद्ध भाषा है, सत्य नहीं है। ऐसा ही होता तो कम्प्यूटर के मसीहा कहे जाने वाले अमेरिकी निवासी बिल गेट्स अधिकारिक और सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहते कि संस्कृत कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा और इसकी देवनागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। प्रसंगवश यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि यूरोपीय देशों में अंग्रेजी का प्रसार उसकी समृद्धि के कारण नहीं हुआ। उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है, उनकी जमीन छीन ली गई है, वहां की जनता को गुलाम बनाकर बेचा गया है और आज भी कई समुदाय गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। यूरोपीय भाषाओं के बारे में एक भ्रांत धारणा यह भी है कि उन सभी में अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली प्रचलित है।
अंग्रेजी की हिमायत करने वालों के पास एक तर्क यह भी है, लेकिन सत्य यह है कि अंग्रेजी सहित इन सभी यूरोपीय भाषाओं के पास पारिभाषिक शब्दावली गढ़ने के लिए कोई एक निश्चित स्त्रोत नहीं है। वे लैटिन से शब्द गढ़ती हैं। फ्रेंच, इतालवी के लिए यह स्वाभाविक है, क्योंकि वे लैटिन परिवार की हैं। यूरोप की भाषाएं ग्रीक के आधार पर शब्द बनाती हैं, क्योंकि यूरोप का प्राचीनतम साहित्य ग्रीक में है और वह बहुत सम्पंन भाषा रही है। जर्मन, रूसी भाषाएं बहुत से पारिभाषिक शब्द अपनी धातुओं या मूल शब्द भंडार के आधार पर बनती हैं। जिस भाषा के पास अपनी धातुएं हैं और उपयुक्त मूल शब्द होंगे, वह भाषा समृद्ध होगी। उसे ग्रीक या लैटिन या किसी अन्य भाषा से उधार लेने की जरूरत नहीं। संस्कृत, हिंदी और भारत की अन्य भाषाओं, विशेषतया दक्षिण भारत की मलयालम, तमिल और कन्नड जैसी शास्त्रीय भाषाएं तथा महाराष्ट्र की मराठी के पास धातु-शब्दों का भंडार है। मराठी को तो देश की छठी शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने के बाबत गठित अध्ययन समिति ने अपनी अनुशंसा दे दी है। अंग्रेजी में अपने घर की पूंजी कुछ नहीं है। ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, फारसी, संस्कृत और हिंदी से उधार माल को अंग्रेजी में अंग्रेजी शब्द कहकर खपाया जाता है। बैंक, रेस्तरां, होटल, आलमीरा, लालटेन, जंगल, पेडस्टल ('पदस्थली' से बना) ऐसे ही चंद शब्द हैं, जो मिसाल के लिए काफी हैं।
एक तथ्य और है-धार्मिक कारणों से ब्रिटेन में ग्रीक की अपेक्षा लैटिन अधिक पढ़ी जाती रही है, इसलिए ग्रीक शब्दों के आधार पर बनी शब्दावली अधिक गौरवमयी समझी जाती है। हिंदी की बात करें तो इस भाषा में कई पारिभाषिक शब्दों का निर्माण हो चुका है। कई विद्वान निजी तौर पर पारिभाषिक शब्दों का निर्माण करते रहे हैं। अज्ञेय ने फ्रीलांस के लिए 'अनी-धनी' शब्द गढ़ा, हालांकि यह शब्द चला नहीं। भारत सरकार के अधीन कार्यरत वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्यरत रहते हुए हिंदी और अन्य मुख्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावली, शब्दार्थिकाओं, पारिभाषिक शब्दकोशों और विश्वकोशों का निर्माण करते रहे हैं, जिनमें सभी विज्ञानों, सामाजिक विज्ञानों और मानविकी विषयों को तथा प्रशासनिक लेखन से संबंधित शब्दावली को सम्मिलित किया गया है। हिंदी को आधुनिक अकादमिक विमर्श और ज्ञान मीमांसा के नए क्षेत्र के हिसाब से सक्षम करने के लिए लाखों नए शब्द हिंदी में निर्मित किए गए हैं और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है।
देश की सामासिक संस्कृति (composite culture) को ध्यान में रखते हुए इतर भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय और व्यावहारिक प्रयोग के शब्द हिंदी में शामिल किए जाते हैं। जैसे-'tomorrow' और 'note' के लिए मराठी शब्द क्रमश: 'उद्या' एवं 'नोंद' का प्रयोग महाराष्ट्र में लिखी जाने वाली हिंदी में देखने को मिलता है, क्योंकि यह आवश्यक और उपयुक्त प्रतीत नहीं होता कि हम नए पारिभाषिक शब्द बनाते समय हमेशा संस्कृत शब्दों का सहारा लें, जैसा कि विगत में अक्सर होता रहा है, भले ही इतर भाषाओं, उर्दू, हिंदी तथा अंग्रेजी के लोकप्रिय शब्दों या 'बोलियों' के रूप में जाने जानी वाली भाषाओं में बेहतर विकल्प मौजूद हों, जिनका भाषा के मुहावरे के साथ अच्छा तालमेल हो और समझने में भी आसान हो। ज्ञानार्जन की दृष्टि से, विशेषतया अध्ययन, अध्यापन, शोध, शिक्षण–प्रशिक्षण के क्षेत्रों में 'मानक' और संस्कृतनिष्ठ शब्दों की बजाय समझ में आने वाले स्पष्ट व उपयुक्त शब्दों का उपयोग श्रेयस्कर सिद्ध हुआ है। कई अंग्रेजी तकनीकी शब्द भी हू-ब-हू देवनागरी लिपि में लिखना प्रेरक और सफल रहा है। आईटी से जुड़े कई शब्द यथा, कम्प्यूटर, माउस, हैंग हो जाना, प्रिंटर, टेबलेट, फोल्डर, डेस्कटॉप, एप्लिकेशन, इंस्टॉल करना, इनबॉक्स, अपलोड, डाउनलोड, ट्रैश, स्पैम, स्क्रीन आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं।
यह जरूरी है कि हिंदी में गरिमा और मानक के नाम पर अड़ियलपन और निरर्थक जटिलता के बंधनों को हटा दें। लोकप्रिय शब्दों को प्रयोग में लाएं पर सामाजिक संस्कृति के हिसाब से, न कि सतही, अल्पकालिक और त्वरित उपाय ढूंढ़ने चाहिए। ऐसा न हो कि हिंदी में मानकीकरण और एकरूपता की धारणा पर हम ज्यादा ही जोर देने लगें। ऐसा होने पर अस्वाभाविक और बनावटी भाषा विकसित हो जाती है, जो किसी भी मूलभाषी के भाषा भंडार का हिसाब नहीं होती। विख्यात हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा था-'हिंदी तब तक विकसित नहीं हो सकती, जबतक कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उसका गहरा संबंध नहीं बनेगा, यदि हमें हिंदी को बचाना है तो निश्चितरूप से क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हमें तालमेल को विकसित करना होगा।' एक दिलचस्प बात यह है कि जब हम सहज होते हैं, मनोरंजन की दुनिया में होते हैं, गाने सुनते हैं, ग़ज़ल-गीत सुनते हैं, फिल्में या टीवी धारावाहिक देखते हैं, या फिर बाजार में मोलभाव कर रहे होते हैं, तब तो बड़े चाव से हिंदी का सहारा ले रहे होते हैं, लेकिन ज्योंही कार्यालयों में, सरकारी संस्थानों में प्रवेश होता है तो हिंदी लिखने में हमें शर्म महसूस होने लगती है या हाथ कांपने लगते हैं। कोई 'टाइपिंग नहीं आती' का रोना रोने लगते हैं, तो कोई 'जल्दी है' कहकर पीछा छुड़ाने लगते हैं। यह भी प्राय: सुनने को मिलता है कि हिंदी के शब्द जानने के वास्ते हमारे पास 'डिक्शनरी-ग्लॉसरी' नहीं है, पर मूल मुद्दा हमेशा एक ही रहता है-हिंदी लिखने में आत्मविश्वास की कमी।
अंग्रेजी लिखने में हम बनावटी दंभ महसूस करते हैं बस। जब आप अपनी कलम से किसी काग़ज पर या बैंक या रेल आरक्षण काउंटर पर फॉर्म भरते वक्त नाम लिखते हैं तो किसी टाइपिंग कला या कम्प्यूटर ज्ञान की जरूरत होती है? किसी शब्दकोश–शब्दावली की आवश्यकता होती है? फिर आपकी कलम की स्याही अंग्रेजी की तरफ क्यों बढ़ती है? साफ है कि या तो आप में आत्मविश्वास का अभाव है या आप अंग्रेजी के आतंक से घिरे हैं, पर यह स्पष्ट है कि तकनीक और शब्दकोशों से ज्यादा जरूरत हमेंइच्छाशक्ति की है। भारत के विख्यात वैज्ञानिक व एकमात्र जीवित आविष्कारक और हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास लिखकर चर्चित हुए डॉ जयंत नार्लिकर से यह पूछे जाने पर कि जब वैज्ञानिक लेखन करते वक्त मौलिक चिंतन की आवश्यकता महसूस हुई, तब क्या आपने अंग्रेजी भाषा में ही सोचा था? उन्होंने कहा-'यह संभव ही नहीं था।' उस समय मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा ने मेरी मदद नहीं की और न ही कर सकती थी। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकोई मितरां से जब पूछा गया कि आप अपने देश में फ्रेंच भाषा को अंग्रेजी की बनिस्पत अधिक तरज़ीह क्यों देते हैं? राष्ट्रपति मितरां ने कहा कि क्योंकि हमें अपने सपने साकार करने हैं। जब हम सपने अपनी भाषा में देखते हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए जो भी काम करेंगे उनके लिए अपनी ही भाषा का प्रयोग जरूरी होगा, पराई भाषा का नहीं।
भाषा 'फोनेटिक' है तभी वैज्ञानिक है
बहरहाल, उसी संगोष्ठी में एक और सज्जन का कहना था कि भाषा फोनेटिक (ध्वनि पर आधारित) होती है। अर्थात सुनने में जैसा लगे, भाषा वैसी ही होनी चाहिए और इस लिहाज से तो देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी , मराठी, संस्कृत आदि भाषाओं की ही जरूरत है और भविष्य भी इनका ही है। देवनागरी लिपि में 52 वर्णाक्षर होते हैं। पांच स्वर होते हैं, शेष व्यंजन होते हैं। स्वर वे होते हैं, जिन्हें उच्चारित करने के लिए ओंठ और दांतों का सहारा नहीं लिया जाता है। स्वर आधारित राग-रागिनियां हैं हमारे शास्त्रीय संगीत में। फिर क वर्ग (क, ख, ग, घ), ट वर्ग (ट, ठ, ड़, ढ) व त वर्ग (त, थ, द, ध) आदि हैं। कितना सूक्ष्म विश्लेषण है अक्षरों का, शब्दों के उच्चारण का। बड़ी ई', छोटी 'इ', छोटा 'उ', बड़ा 'ऊ' की मात्राओं से शब्दों के अर्थ कितने विस्तृत हो जाते हैं! जैसे-'दूर' से भौगोलिक दूरी का अभिप्राय होता है तो 'दुर' से तुच्छ वस्तु का अर्थ सामने आता है। इसी प्रकार 'सुख' आनंद का पर्याय है, जबकि 'सूख' से शुष्क या सूख (dry) जाने का बोध होता है। एक उदाहरण लें-यदि हमें 'डमरू' लिखना हो रोमन में तो हम 'dumru' या 'damroo' लिखेंगे। पर क्या पढ़ने वाला 'दमरू' नहीं पढ़ सकता है। 'ण', 'र' के प्रयोग तो हिंदी में विलुप्त ही होते जाते रहे हैं। रोमन में हिंदी का बेड़ा किस कदर गर्क होगा, अनुमान लगाया जा सकता है और फिर 'क्ष', 'त्र', 'ज्ञ', 'त्र' का क्या 'ड' और 'ड़' तथा 'ढ' और 'ढ़' का क्या करेंगे? इन सबको हटा देंगे अपने व्याकरण से, अपने जेहन से? सुविधा और आधुनिकता के नाम पर भविष्य में ऐसा हो जाए तो अचरज नहीं, फिर देवनागरी लिपि के 52 वर्ण घटकर 25-26 रह जाएंगे।
कल्पना कीजिए, यदि ऐसा ही कुछ हो गया तो? हमारे देश व पूरी दुनिया में विगत पचास वर्ष में कई भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो गई हैं। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा अरूणाचल प्रदेश में कई भाषाएं, बोलियां इन कारणों से लुप्त हो गईं कि कुछ की लिपियां न होने के कारण शिक्षण का माध्यम न बन सकीं और कुछ के बोलने वाले नहीं रहे। झारखण्ड में बोली जाने वाली 'हो', 'संताली', 'मुंडारी' आदि भाषाओं को अक्षुण्ण बनाने के लिए प्रयास तीव्र हो गए हैं, क्योंकि उनके प्रयोग करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। दरअसल सारी परेशानियां गुरूतर तब हो गईं जब कम्प्यूटर का भारत की धरती पर प्रवेश हुआ। अंग्रेजी भाषा के हिमायती नागरिकों ने कहना शुरू कर दिया कि हिंदी व दूसरी भारतीय भाषाओं का भविष्य खतरे में है। खुद कम्प्यूटर के प्रचालकों ने भी यह अफवाह फैलानी शुरू कर दी। धीरे-धीरे लोगों को यह समझ में आया कि कम्प्यूटर की तो अपनी कोई भाषा नहीं होती। यह तो डॉट (.) के रूपों को ही स्क्रीन पर प्रदर्शित करता है। फिर धीरे-धीरे, बल्कि कहें तो 21 वीं सदी में काफी तेजी से कम्प्यूटर ने इंसानी जीवन में दखल देना शुरू कर दिया। तब भी आरंभ के कुछ वर्षों तक भी अंग्रेजी को ही कम्प्यूटर की मित्र भाषा समझा गया, लेकिन धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि कम्प्यूटर की दरअसल कोई भाषा नहीं होती है और अगर भाषा की कोई दरकार है अप्लिकेशंस को लेकर, तो वह है देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषाएं। मसलन हिंदी, मराठी, संस्कृत आदि। माइक्रोसॉफ्ट के जनक बिल गेट्स ने यह भी कहा है कि देवनागरी लिपि और इस लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृत एवं हिंदी भाषाएं सर्वाधिक तार्किक और तथ्यपरक भाषाएं हैं।
देवनागरी लिपि : श्रेष्ठ लिपि
आइए, यह भी जान लें कि हिंदी भाषा की लिपि 'देवनागरी कहां से और कैसे शुरू हुई; क्योंकि भारत की संविधान सभा ने भी 14 सितम्बर 1949 को यह घोषणा आधिकारिक तौर पर की थी कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी, जिसकी लिपि देवनागरी होगी। वस्तुत: 'देवनागरी' लिपि नागरी लिपि का विकसित रूप है। ब्राम्ही लिपि का एक रूप 'नागरी लिपि' था। नागरी लिपि से ही 'देवनागरी लिपि' का विकास हुआ। अनेक प्राचीन शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में ब्राह्मी लिपि प्रयुक्त हुई है। अशोक के शिलालेख भी ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गए हैं। ईसा की चौथी शताब्दी तक समस्त उत्तर भारत में ब्राह्मी लिपि प्रचलित थी। ईसा पूर्व पाँचवीं सदी तक के लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं। इस प्रकार यह लिपि लगभग ढाई हज़ार वर्ष पुरानी है। इतनी प्राचीन होने के कारण इसे 'ब्रह्मा की लिपि' भी कहा गया है। यही भारत की प्राचीनतम मूल लिपि है, जिससे आधुनिक सभी भारतीय लिपियों का जन्म हुआ। ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर ईसा के बाद चौथी शताब्दी तक के लेखों की लिपि ब्राह्मी रही है। मौर्यकाल में भारत की राष्ट्रीय लिपि 'ब्राह्मी' ही थी। इसके बाद ब्राह्मी लिपि दो रूपों में विभाजित हो गई–उत्तरी ब्राह्मी तथा दक्षिणी ब्राह्मी। उत्तरी ब्राह्मी प्रमुखत: विंध्याचल पर्वतमाला के उत्तर में प्रचलित रही तथा दक्षिणी ब्राह्मी विंध्याचल के दक्षिण में। 'उत्तरी ब्राह्मी' का आगे चलकर विविध रूपों नें विकास हुआ। उत्तरी ब्राह्मी से ही दसवीं शताब्दी में 'नागरी लिपि' विकसित हुई तथा नागरी लिपि से 'देवनागरी लिपि' का जन्म हुआ। उत्तर भारत की अधिकांश लिपियां, यथा, कश्मीरी, गुरूमुखी, राजस्थानी, गुजराती, बंगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं की लिपियां नागरी लिपि का ही विकसित रूप हैं। यही कारण है कि देवनागरी लिपि तथा इन सभी लिपियों में अत्यधिक समानता है। 'दक्षिण ब्राह्मी' से दक्षिण भारतीय भाषाओं, यथा, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालय आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ। यद्यपि इन लिपियों का विकास भी मूलत: ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है, तथापि देवनागरी लिपि से इनमें कुछ भिन्नता आ गई है।
इन कारणों से देवनागरी लिपि है वैज्ञानिक
• यह लिपि विश्व की सभी भाषाओं की ध्वनियों का उच्चारण करने में सक्षम है। अन्य लिपियों में, विशेषकर विदेशी लिपियों में यह क्षमता नहीं है। जैसे अंग्रेजी में देवनागरी लिपि की महाप्राण ध्वनियों, कुछ अनुनासिक ध्वनियों आदि के लिए कोई उपयुक्त ध्वनि उपलब्ध नहीं है।
• देवनागरी लिपि में जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है और जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। लिखने और बोलने में समानता के कारण इसे सीखना सरल है। विदेशी लिपियों में यह विशेषता नहीं है। अंग्रेजी में तो बिल्कुल ही नहीं।
• देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण की ध्वनि निश्चित है। वर्णों की ध्वनियों में वस्तुनिष्ठता है, व्यक्तिनिष्ठता नहीं। अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण हर व्यक्ति अपने तरीके से करता है।
• इस लिपि में एक वर्ण एकाधिक ध्वनियों के लिए प्रयुक्त नहीं होता। अत: किसी भी वर्ण के उच्चारण में कहीं भी भ्रम की स्थिति नहीं है। अंग्रेजी में एक ही वर्ण भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप में उच्चारित होता है, अत: भ्रम की स्थिति रहती है।
• देवनागरी लिपि में प्रत्येक प्रयुक्त वर्ण ध्वनि अवश्य देता है। चुप नहीं रहता। अंग्रेजी में कहीं-कहीं प्रयुक्त वर्ण चुप भी रहते हैं। जैसे- Budget में 'd' का उच्चारण नही होता। walk और knife में क्रमश: l और k चुप रहते हैं। कैसी विडंबना है कि जिन वर्णों का सृजन ध्वनि देने के लिए किया गया है, भावों की सम्प्रेषणीयता के लिए किया गया है, उन्हें प्रयुक्त होने के बाद भी चुप रहना पड़ता है ।
• देवनागरी लिपि में ध्वनियों को अधिकाधिक वैज्ञानिकता प्रदान करने के लिए स्वरों तथा व्यंजनो की पृथक-पृथक वर्णमाला निर्मित की गई है।
• स्वरों के उच्चारण के समय जैसी मुख की आकृति होती है, वैसी ही आकृति संबंधित वर्ण की होती है। जैसे-'अ' का उच्चारण करते समय आधा मुख खुलता है। 'आ' की रचना पूरा मुख खुलने के समान है। 'उ' का आकार मुख बंद होने की तरह है। 'औ' में दो मात्राएं मुख के दोनों जबड़ों के संचालन के समान हैं।
• स्वरों की ध्वनियों की वैज्ञानिकता यह है कि बच्चा पैदा होने के बाद स्वरों के उच्चारण क्रम में ही होते हैं।
• स्वरों के उच्चारण में हवा कंठ से निकल कर उच्चारण स्थानों को बिना स्पर्श किये, बिना अवरूद्ध हुए, ध्वनि करती हुई मुख से बाहर निकलती है।
• व्यंजनों के उच्चारण में हवा कंठ से निकलकर उच्चारण-स्थानों को स्पर्श करती हुई या घर्षण करती हुई, ध्वनि करती हुई, ओठों तक होती हुई मुख या मुख और नासिका से बाहर निकलती है। इस प्रकार स्वरों तथा व्यंजनों में ध्वनि उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भिन्नता है। अत: सिद्धांतत: स्वरों तथा व्यंजनों का वर्गीकरण पृथक-पृथक होना ही चाहिए। देवनागरी लिपि में इसी वैज्ञानिक आधार पर स्वर और व्यंजन अलग-अलग वर्गीकृत किये गए हैं।
• व्यंजनों को उच्चारण-स्थान के आधार पर कंठ्य, मूर्धन्य, दंत्य तथा औष्ठ्य-इन पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। कंठ से लेकर ओठों तक ध्वनियों का ऐसा वैज्ञानिक वर्गीकरण अन्य लिपियों में उपलब्ध नहीं है। यह वर्गीकरण ध्वनि-विज्ञान पर आधारित है।
• देवनागरी लिपि में अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में भी वैज्ञानिकता है, क्योंकि शब्दों के साथ उच्चारण करने पर अनुनासिक ध्वनियों में अंतर आ जाता है, इसलिए व्यंजनों के प्रत्येक वर्ग के साथ, वर्ग के अंत में उसका अनुनासिक दे दिया गया है।
• देवनागरी लिपि में हृस्व और दीर्घ मात्राओं में स्पष्ट भेद है। उनके उच्चारण में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है। अन्य लिपियों में हृस्व और दीर्घ मात्राओं के उच्चारण की ऐसी सुनिश्चितता नहीं है। अंग्रेजी में तो वर्णों से ही मात्राओं का काम लिया जाता है। वहां हृस्व और दीर्घ में कोई अंतर नहीं है, मात्राओं का कोई नियम नहीं है।
सरकारी संस्थानों में संगोष्ठियों का आयोजन स्वागत योग्य है। इसके मूलत: तीन कारण मेरे विचार में हैं। पहला-कार्यालयीन कामकाज में तल्लीन व्यक्ति को वैचारिक धरातल पर कुछ सुनने-समझने और सोचने-विचारने के अवसर मिलते हैं। यह उसकी मस्तिष्कीय सक्रियता को बढ़ाता है और सुषुप्त पड़ी रचनात्मक प्रतिभा को सामने लाने में सहायक होता है। दूसरा कारण, विचारवान व्यक्तियों से परिवार व समाज विचारवान होता है। आखिरी वजह बुनियादी भी है। भारत सरकार की राजभाषा नीति के क्रियांवयन की दिशा में यह एक सशक्त गतिविधि है। उम्मीद है, सशक्त संगोष्ठियों के आयोजन का सिलसिला सरकारी कार्यालयों और विभागों में बढ़ेगा, पर यह आवश्यक है कि हम किसी भी भारतीय भाषा को उसी लिपि में लिखें और लिखने को तरज़ीह दें, जो उस भाषा के लिए बनी हुई है। रोमन लिपि के प्रति आकर्षण अंतत: हमें अपनी जड़ों से अलग ही करेगा। आखिर में एक बात। ज्यों-ज्यों हमारे देश में हिंदी और दूसरी भाषाओं को हल्के में लिए जाने का षडयंत्र बढ़ेगा, त्यों-त्यों इन भाषाओं के जानकारों का वर्चस्व बढ़ेगा। अच्छी हिंदी-शुद्ध हिंदी, अच्छी मराठी-शुद्ध मराठी, अच्छी गुजराती-शुद्ध गुजराती लिखने-बोलने वालों की तूती बोलेगी। तथास्तु। –डॉ अमरीश सिन्हा, ए-103, सच्चिदानंद रहेजा कॉम्पलेक्स, मालाड (पूर्व), मुंबई-400097