दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपने को प्रधानमंत्री पद की लड़ाई से बाहर मानकर भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए का दामन थाम लिया है। उन्हें एहसास हो गया है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में उनका प्रधानमंत्री बनना बिल्कुल असंभव है, इसलिए उन्होंने एक प्रकार से एनडीए के सामने प्रस्ताव रख दिया है कि वह कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार न बनने देने के लिए बिना शर्त एनडीए का साथ देंगी। उत्तर प्रदेश के राज्य सभा चुनाव में एक राजनीतिक पलटी मारते हुए मायावती ने भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह अटल बिहारी वाजपेयी के सामने आत्मसमर्पण जैसा कर दिया है। उन्होंने कांग्रेस के भगोड़े अखिलेश दास गुप्ता को एक नाटकीय घटनाक्रम में अचानक राज्यसभा का प्रत्याशी बनाकर लखनऊ की लोकसभाई लड़ाई से अपने हाथ खींच लिए हैं। भले ही अखिलेश दास गुप्ता को लखनऊ से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कहा गया है लेकिन यह महज एक ड्रामा रह गया है। मायावती अपने लिए देश की भावी राजनीति के खतरे भांप चुकी हैं और अब उनके सामने इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है कि लोकसभा चुनाव बाद एनडीए के साथ चलने में ही भलाई है। इसलिए उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को फिर से अपना संकटमोचक बनाया है। उन्हें उम्मीद है कि वह आगे चलकर किसी भी रूप में उनकी मदद कर सकते हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती कांग्रेस गठबंधन से डरी हुई हैं, जिससे स्पष्ट संकेत है कि उनके मन में एनडीए के लिए कुछ न कुछ चल रहा है भले ही अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति से संन्यास ले चुके हैं, लेकिन मायावती ने अपनी ओर से राजनीतिक पहल कर उन्हें फिर से सक्रिय राजनीति में लौटाने और ऊर्जावान बनाने का प्रयास किया है। यह ठीक है कि भाजपा के शिखर नेता लाल कृष्ण आडवाणी देश के प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किए जा चुके हैं, लेकिन इसके साथ यह भी उतना ठीक है कि राजनीति में न कुछ स्थाई होता है और न असंभव। ठीक उस तरह जिस तरह से अखिलेश दास गुप्ता के करोड़ों रुपये चुनाव प्रचार में खर्च कराने के बाद मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें अपनी पार्टी से राज्यसभा में भेज दिया। कहां तो अखिलेश दास गुप्ता और उनकी राजनीतिक आका मायावती पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की अबतक अजेय रही लखनऊ संसदीय सीट पर बसपा का परचम लहराने की बात कर रहे थे और कहां रातों रात अखिलेश दास गुप्ता को राज्यसभा में भेजने के लिए घोषणा कर दी गई। इससे केंद्र की भावी सरकार में अटल बिहारी बाजपेयी में एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनाने की मायावी रणनीति और महत्वाकांक्षा जगाने के संकेत मिल रहे हैं। इसलिए मुश्किल नहीं है कि इस सर्वोच्च पद के लिए हर दृष्टि से अनुकूल परिस्थितियों के बन जाने के बाद बाजपेयी उठ खड़े हों। अतीत में जाएं तो पिछले दो दशक से देश के प्रधानमंत्री पद को लेकर केवल चमत्कार ही होते दिखाई दे रहे हैं।
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि एनडीए के कुछ घटक अंदरखाने लालकृष्ण आडवाणी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किए जाने के पक्षधर नहीं रहें हैं। आज भी इस मुद्दे पर किसी न किसी प्रकार का विरोध और गतिरोध कायम है। उत्तर प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी के नाराज चल रहे दिग्गज नेता कल्याण सिंह के बयान पर जरा गौर फरमाएं! वे हाल ही में अटल बिहारी वाजपेयी से दिल्ली में मुलाकात किए हैं और इस मुलाकात के बाद उनका सबसे पहला राजनीतिक बयान अटल बिहारी वाजपेयी के लिए गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘अटलजी तो राजनीतिक संत हैं।’ ये वही कल्याण सिंह हैं जिन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के लिए अटल बिहारी वाजपेयी से दुश्मनी मोल ली थी और कोई भी अवसर ऐसा नहीं छोड़ा था जिसमें उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को निशाना न बनाया हो। सब जानते हैं कि कल्याण सिंह की लालकृष्ण आडवाणी से दांत काटी अंतरंगता रही है और जब भी मीडिया में कल्याण और आडवाणी की बात आई तो मीडिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को इन दोनों से छत्तीस के आंकड़े पर रखा। इसलिए कुछ नहीं कहा जा सकता कि अनुकूल वातावरण दिखाई देने पर अटल बिहारी वाजपेयी के मन में न जाने कब एक बार फिर प्रधानमंत्री की ललक जगा दी जाए, जिसका सर्वाधिक लाभ मायावती को मिलना तय है जिसमें मायावती सरकार को केंद्र सरकार का अभयदान प्रमुख है। वे जानती हैं कि वह जिस समय अटल बिहारी वाजपेयी के पास पहुंच जाएंगी तो उन पर चलाया गया ब्राह्मस्त्र भी बिना प्रहार किए वापस हो जाएगा।
मायावती को यह भलीभांति मालूम है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन जरूर होगा और साथ में उनको हराने के लिए कुछ क्षेत्रीय घटक दल भी सक्रिय होंगे। देश के उत्तर भारतीय राज्यों में दलितों के वोटों को विभाजित करने के लिए एक मुहिम शुरू हो ही चुकी है। बिहार में राम विलास पासवान ने एक संयुक्त दलित मोर्चा बना दिया है। उत्तर भारत के दो सशक्त यादव राजनेता मुलायम सिंह यादव और लालू यादव भी एक हो गए हैं। लोक सभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग पर चुनाव आयोग और सुरक्षा बलों की इतनी पैनी नजर होगी कि यहां पर मायावती सरकार न केवल कोई गड़बड़ी करने की हिम्मत नही कर पाएंगी अपितु यह संभावना पूरी तरह से कायम है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जैसे ही आचार संहिता लागू होगी उसकी परछाई में उत्तर प्रदेश में तैनात किए गए दारोगा से लेकर मुख्य सचिव तक की कुर्सियां उलट-पलट दी जाएंगी। यूपी से मुख्य सचिव अतुल गुप्ता और राज्य के डीजीपी विक्रम सिंह सहित कई बड़े दिग्गज नौकरशाहों का चुनाव आयोग की चपेट में आना तय है, इसलिए मायावती सरकार को ऐसा कोई मौका नहीं मिल पाएगा कि जिसमें वह लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी की सरकारी मशीनरी से कोई मदद करा सकें।
मायावती को यह भी मालूम हो गया है कि यदि पर्याप्त संख्या में उनके सांसद जीतकर नहीं आए तो उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। यह भी हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव के सांसदों जैसी स्थिति आ जाए जिन्हें चार साल तक किसी ने नहीं पूछा। इस बार केंद्र की नई सरकार के गठन में समाजवादी पार्टी की मामूली सी भूमिका भी मायावती के राजनैतिक भविष्य के लिए अत्यंत खतरनाक होगी जिसमें कि मायावती का उत्तर प्रदेश सरकार चला पाना असंभव होगा। भारतीय संविधान में पांच साल के लिए निर्वाचित किए जाने का एक प्रावधान तो है लेकिन यह गारंटी नहीं है कि कुछ भी करने पर भी पांच साल तक सरकार चलेगी ही। इसी से यह भी तय हो जाता है कि मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर सामाजिक उत्थान के नाम पर, भ्रष्टाचार के नाम पर और प्रशासन के नाम पर जो भी कुछ किया है उन्हें उसका जन समर्थन नहीं मिला है इसलिए इस समय उनके खाते में जो बदनामियां आई हैं उनका असर लोकसभा चुनाव में दिखाई पड़ेगा जिसका कि फायदा उनके राजनीतिक विरोधी जमकर उठाएंगे।
मायावती ने उत्तर प्रदेश में राज्य सभा के चुनाव में जिस प्रकार अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की है वह कोई ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं हैं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं, और न ही इसमें वास्तविक सामाजिक न्याय की आस नजर आती है। अखिलेश दास गुप्ता और मुरादाबाद के वीर सिंह की छवि को कौन नही जानता? लोग इन्हें राजनीति का विलेन कहकर पुकारते हैं। सरदार अवतार सिंह एक जरूर नया नाम है। मगर राजनीतिक रूप से कुछ समझने के लिए है तो वह यही है कि मायावती ने केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का गठन रोकने के लिए एक रास्ता बनाने की कोशिश की है जिसमें यदि एनडीए सरकार का गठन हो सकता है तो वह बिना किसी हिचक के एनडीए में जाएंगी जिससे कांग्रेस की यूपीए सरकार बनने से रूक जाएगी जो उन्हें लोकसभा चुनाव के बाद भ्रष्टाचार के मामलों में जेल में डालने की पूरी कोशिश कर सकती है।
उधर समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में एक सूत्रीय एजेंडे पर चल रही है। उसका एजेंडा है, उत्तर प्रदेश से बसपा का सफाया और केंद्र में बनने वाली सरकार का हर कीमत पर हिस्सा बनना। समाजवादी पार्टी भी मायावती से तभी बदला ले सकती है जब वह केंद्र की भावी सरकार का हिस्सा बने। अकेले उत्तर प्रदेश से अगर मायावती जीतकर आती भी हैं तो कोई भी सरकार मायावती के समर्थन से बनेगी यह न तो गारंटी है और न जरूरी। क्योंकि मौजूदा लोकसभा में देश ने देखा है कि पूरे चार साल तक समाजवादी पार्टी के लगभग चालीस सांसद लोकसभा में प्रभावहीन रहे और इतनी बड़ी ताकत के बावजूद मुलायम सिंह यादव राजनीतिक रूप से काफी अलग-थलग रहे, अपनी सरकार भी ठीक से नही चला पाए। यदि मायावती भी चालीस सांसद ले आती हैं और मौजूदा लोकसभा वाली मुलायम सिंह जैसी स्थिति उनके सामने भी आती है तब मायावती के सांसद प्रभावहीन ही रहेंगे।
केंद्र में जो स्थिति बनती दिख रही है वह यही है कि कुछ राजनीतिक सौदागरों को छोड़कर बाकी कोई भी दल और स्वयं बसपा के भीतर के कुछ नेता भी अंदरखाने नहीं चाहते कि मायावती प्रधानमंत्री हों। क्योंकि मायावती ने बसपा के भीतर जो आंतरिक तानाशाही कायम कर रखी है उससे बसपा के अधिकांश लोग भारी नाराज हैं और लोकसभा चुनाव में यह नाराजगी कहीं न कहीं गुल अवश्य खिलाएगी। लोकसभा चुनाव में मायावती कितनी सीटें जीतेंगी यह इस पर निर्भर करेगा कि चुनाव में मतदान का प्रतिशत क्या रहता है? यदि यह प्रतिशत तीस या उससे नीचे रहता है, जैसा कि उप्र विधानसभा चुनाव में हुआ था तो मायावती को उत्तर प्रदेश से अच्छी खासी सफलता मिल सकती है और यदि ये प्रतिशत चालीस और उससे ऊपर चला गया तो मायावती को लोकसभा की ज्यादा सीटें जीतने के लाले पड़ जाएंगे। इसका प्रमुख कारण यह है कि तीस प्रतिशत तक का मतदान दलित समाज और उनके खास सहयोगियों का होगा और अपरकास्ट जितनी ज्यादा संख्या में मतदान के लिए जाएगा उतना ही बसपा के लिए खतरा बढ़ जाएगा। पचास प्रतिशत या उसके ऊपर मतदान पर बसपा दूसरे या तीसरे नंबर पर जाती दिखाई देगी।
मायावती इस सारे समीकरण से परिचित होने के बावजूद आशंकाग्रस्त हैं कि अगर बसपा के ज्यादा सांसद आ भी गए तो कहीं ऐसा न हो कि उनकी उपयोगिता कुछ न रहे, इसलिए उन्होंने राज्यसभा चुनाव में जो दांव खेला है वह मायावती की चिंता और उनके संकेतों को खुलकर प्रकट करता है जिसमें उन्होंने सर्वप्रथम भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह अटल बिहारी वाजपेयी के सामने लखनऊ संसदीय सीट पर स्पष्ट रूप से समर्पण किया है कि वह उनके खिलाफ लखनऊ लोकसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ेंगी। स्पष्ट कर दें कि अखिलेश दास गुप्ता के रूप में लखनऊ से मायावती ही चुनाव लड़तीं, अखिलेश दास गुप्ता तो केवल एक मोहरा मात्र माने जाते हैं, जिन्हें अटल बिहारी बाजपेयी के हाथों पराजित होना ही था और वैसे भी इस बदनाम राजनेता को लड़ाने का नफा-नुकसान मायावती को अच्छी तरह से मालूम है।
इस राज्यसभा चुनाव में यूं तो कोई बड़ा राजनीतिक महाभारत नहीं हो रहा है और न ही होने वाला था लेकिन कभी-कभी ऐसे चुनाव राजनीति की दशा और दिशा के संकेत दे जाते हैं। कल तक अखिलेश दास गुप्ता जिस प्रकार से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे क्या मायावती की घोषणा के अनुसार वह उस प्रकार चुनाव लड़ पाएंगे? राजनीति में आखिर मतदाताओं पर कितने प्रयोग होंगे? अब उनका क्या होगा जो लखनऊ के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में अपना राजनीतिक भविष्य ढूंढ रहे थे। मायावती से और कैसे फैसलों की उम्मीद की जा सकती है कि जो कभी गुर्राती हैं और कभी घटिया तरीके से समर्पण करती हैं। राजनीति की तस्वीर साफ हो चुकी है जिसमें मायावती प्रधानमंत्री पद की लड़ाई से बहुत बाहर जा चुकी हैं।