डॉ एमएल गुप्ता आदित्य
Sunday 24 May 2015 11:40:28 AM
हिंदी साहित्य और फुटबॉल एवं फुटबॉल के प्रति दीवानगी के बीच भला क्या तालमेल हो सकता है? किसी जुनूनी से ही इसकी कल्पना की जा सकती है। धरती से लेकर अंतरिक्ष तक भारत की प्रतिभाओं ने दुनिया को ऐसे ही भारत का लोहा मनवाया है। हम जिक्र कर रहे हैं नीदरलैंड में बैठीं प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी का, जिन्होंने अपने हिंदी आंदोलन को कामयाब बनाने की प्रेरणा फुटबॉल के खिलाड़ी से ली और उससे परदेस में न केवल हिंदी को बड़ा सम्मान दिलाया, बल्कि फुटबॉल को भी हिंदी से जोड़ दिया। इस तरह देश-दुनिया में हिंदी के विकास और प्रसार में जहां और भी कई प्रसिद्ध नाम लिए जाते हैं, उनमें प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी भी एक नाम है, जिसने हिंदी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया हुआ है।
भारत में पिछले दो-तीन दशक में शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में आए परिवर्तनों के चलते जहां एक ओर भारत में अंग्रेजीयत के मुकाबले भारतीयता व भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी वैश्विक स्तर पर भारतीय भाषाओं और संस्कृति को स्थापित व प्रतिष्ठित करने में दिन-रात एक किए हुए हैं। विश्वस्तर पर भारत की पहचान हिंदी भाषा से है, चूंकि उन देशों में कामकाज व शिक्षा की भाषा के लिए अपनी भाषाएं हैं, वहां हिंदी भाषा के माध्यम से वे भारतवंशियों को साथ लेकर हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति की जड़ें मजबूत कर रही हैं। उन्होंने हिंदी की विश्व दूत बनकर विश्वस्तर पर हिंदी भाषा व साहित्य को प्रतिष्ठित करने वाले भारतवंशियों में अपना नाम दर्ज किया है।
प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व व कृतित्व को किसी एक सीमा में रख पाना कठिन है। वे यायावर, कवि, लेखक, संपादक, प्रोफेसर और एक कुशल संगठनकर्ता एवं राजनयिक के रूप में कठिन संघर्ष करते हुए विश्वस्तर पर विशिष्ट प्रतिष्ठा व पहचान प्राप्त कर चुकी हैं। प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी विगत 14 वर्ष से विदेश में हिंदी साहित्य, भाषा, संस्कृति के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, मोनोग्राफ व हिंदी शिक्षण, जीवनी इत्यादि की हिंदी सहित कई भाषाओं में उनकी 30 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। विदेश में प्रकाशित उनके साहित्य एवं कृतित्व से हिंदी के प्रचार-प्रसार के बहुत से कार्य उन्हें ‘हिंदी कीविश्व दूत’ के रूप में एक विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।
कानपुर शहर में जन्मी पुष्पिता अवस्थी की पढ़ाई बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध राजघाट, वाराणसी के प्रतिष्ठित जे कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में हुई है। वर्ष 1984 से 2001 के बीच वह जे कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के वसंत महिला महाविद्यालय में वर्षों हिंदी विभागाध्यक्ष रहीं। वर्ष 2001 से ही वे दक्षिण अमेरिका के उत्तर पूर्व में स्थित सूरीनाम देश के भारतीय दूतावास एवं भारतीय सांस्कृतिक केंद्र पारामारिबो, सूरीनाम में प्रथम सचिव एवं हिंदी प्रोफेसर के रूप में वर्ष 2001 से 2005 तक वहां कार्यरत रहीं। उन्हीं के संयोजन में वर्ष 2003 में सूरीनाम में सातवां विश्व हिंदी सम्मलेन हुआ। वर्ष 2006 से वे नीदरलैंड में 'हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन' की निदेशक हैं। सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़ी पुष्पिता 'बचपन बचाओ आंदोलन' और स्त्री अधिकारों के लिए भी विश्वस्तर पर संघर्षरत समूहों से सक्रियता से संबद्ध हैं।
विश्वबंधुत्व में पगी प्रोफेसर पुष्पिता की रचना की निजता या निजता में की जानेवाली रचना और रचना की सार्वजनिता सब के हित में है। वे अपनी रचना शक्तियों के प्रयुक्तिकरण का विलक्षण द्वंद्व रचते हुए स्वयं के लिए एक असाधारण परिचय संदर्भ बन जाती हैं। अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता ने अथक प्रयास करके हिंदी प्रेमी समुदाय को संगठित किया, जिसकी परिणति उनके अनुदित और संपादित समकालीन सूरीनामी लेखन के दो संग्रहों 'कविता सूरीनाम' (राधाकृष्ण प्रकाशन 2003) और 'कहानी सूरीनाम' (राधाकृष्ण प्रकाशन 2003) में पुस्तकों में हुई। 'सूरीनाम' शीर्षक से उन्होंने मोनोग्राफ़ भी लिखा, जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया। इन सबका लोकार्पण सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हुआ।
प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी के कविता संग्रहों 'शब्द बनकर रहती हैं ऋतुएं' (कथा रूप 1997), 'अक्षत' (राधाकृष्ण प्रकाशन 2002), 'ईश्वराशीष' (राधाकृष्ण प्रकाशन 2005), 'ह्रदय की हथेली' (राधाकृष्ण प्रकाशन 2008), तुम हो मुझमें (राधाकृष्ण प्रकाशन 2014), 'शब्दों में रहती है वह' (किताब घर 2014) और कहानी संग्रह'गोखरू' (राजकमल प्रकाशन 2002) और ‘जन्म’ (मेघा बुक्स 2009) को साहित्य संसार में व्यापक सराहना मिली है। आलोचना के क्षेत्र में वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष' विशेष रूप से चर्चित रही, जिसके कई संस्करण प्रकाशित हुए। हिंदी और संस्कृत के विद्वान पंडित विद्यानिवास मिश्र से उनके संवाद 'सांस्कृतिक आलोक से संवाद' (भारतीय ज्ञानपीठ 2006) को समकालीन हिंदी और हिंदी समाज की विकास यात्रा को दर्ज करने के अनूठे प्रयास के रूप में देखा पहचाना गया है।
मेधा बुक्स से 'अंतर्ध्वनि' और अंग्रेजी अनुवाद सहित रेमाधव प्रकाशन से 'देववृक्ष' काव्य संग्रहों का वर्ष 2009 में प्रकाशन हुआ। साहित्य अकादमी दिल्ली से वर्ष 2010 में 'सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य' पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका लोकार्पण जोहानिसबर्ग में वर्ष 2011 में आयोजित हुए नवें विश्व हिंदी सम्मलेन में हुआ। वर्ष 2010 में ही नेशनल बुक ट्रस्ट से उनकी 'सूरीनाम' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। एम्सटर्डम स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ने डिक प्लक्कर और लोडविक ब्रंट ने डच में कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित किया। नीदरलैंड के अमृत प्रकाशन से डच, अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष 2010 में 'शैल प्रतिमाओं से' शीर्षक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ।
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, फ्रेंच और डच भाषाओं की जानकार पुष्पिता अवस्थी को अपनी कविताओं के पाठ के लिए जापान, मॉरिशस, अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैंड सहित कई यूरोपियन और कैरिबियाई देशों में आमंत्रित किया जा चुका है। विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने वैश्विक मानवीय संस्कृति तथा भारतवंशी संस्कृति पर विशेष व्याख्यान दिए हैं। मॉरीशस के हिंदी लेखक संघ सहित विदेशों की कई संस्थाओं का उन्हें मानद सदस्य बनाया गया है। लगातार दस वर्ष से वे भारतवंशी बहुल देशों में से सूरीनाम, गयाना, ट्रिनिडाड, फिजी,दक्षिणअफ्रीका और कैरिबियाई देश-द्वीपों को अपना कार्य और सृजनात्मक चिंतन का क्षेत्र बनाए ह्ए हैं। प्रोफेसर पुष्पिता कहती हैं-भारतवंशियों की नई पीढ़ी ने मॉरिशस, गयाना, ट्रिनिडाड और कुछ हद तक सूरीनाम जैसे देशों में न सिर्फ सत्ता, व्यवसाय और राजनीति में ही अपना वर्चस्व बनाया है, बल्कि अन्य देशों की भाषा-संस्कृति की रगड़ मार से संघर्ष करते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी अलग भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाई है।
प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी के भारतवंशी सांस्कृतिक दृष्टिपूर्ण सृजनात्मक कृतित्व को ध्यान में रखते हुए हिंदुस्तानी बहुल देश मॉरिशस के सांस्कृतिक मंत्रालय ने अपने अंतर्राष्ट्रीय अप्रवासी सम्मेलन में उन्हें मुख्य अतिथि और विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित किया और अंतर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक परिषद का महासचिव भी घोषित किया। फिल्म, मीडिया और टेलीविजन से निरंतर जुड़ी रहनेवाली प्रोफेसर पुष्पिता ने अनेक महत्वपूर्ण वृत्तचित्र बनाए हैं। सूरीनाम की संस्कृति और प्रकृति पर उनकी दो घंटे की डॉक्यूमेंटरी फिल्म वर्ष 2003 में आयोजित हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में और इसके उपरांत कई भारतवंशी बहुल देशों में भी प्रदर्शित की गई। इसके पूर्व महान हिंदी साहित्यकार व उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल, डॉ विद्यानिवास मिश्र और प्रोफेसर शिवप्रसाद सिंह के कृतित्व-व्यक्तित्व पर उनकी डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का लखनऊ दूरदर्शन पर प्रदर्शन हुआ है। पुष्पिता अवस्थी विश्व की अनेक आदिवासी प्रजातियों तथा भारतवंशियों केअस्तित्व और अस्मिता पर विशेष अध्ययन और शोधकार्य से भी संबद्ध हैं।
हिंदी भाषा प्रसार के क्षेत्र में भी पुष्पिता अवस्थी ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने विदेश में हिंदी पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए अन्य भाषाविद् विद्वानों के साथ देवनागरी से शुरुआत करते हुए छह भाषाओं मेंविशेष पुस्तकें तैयार की हैं, जिनका भारतवंशी बहुल देशों में उपयोग हो रहा है। बहुमुखी, बहुआयामी प्रतिभा की धनी पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व-कृतित्व तथा चिंतन को इस एक रिपोर्ट की परिधि में समेट पाना संभव नहीं है। हिंदी के विश्व दूत के रूप में हिंदी भाषा–साहित्य के प्रसार में उनका योगदान निश्चय ही विश्व स्तर पर उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़ा करता है। वैश्विक हिंदी सम्मेलन ‘हिंदी की विश्व दूत’ प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी को उनके प्रेरणास्पद अप्रतिम योगदान की सराहना करता है। प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी की ज़िंदगी का एक और पहलू है जिसके बिना उनका यह परिचय अधूरा होगा। प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी की जैसी दीवानगी साहित्य और हिंदी भाषा के प्रति है कुछ वैसी ही दीवानगी फुटबॉल के प्रति भी है।
नीदरलैंड के आयक्स फुटबॉल क्लब (18 मार्च 1900 से स्थापित) के बिजनेस क्लब की वरिष्ठ सदस्य हैं प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी। इतनी व्यस्तताओं के बावजूद पिछले दस वर्ष से राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय साप्ताहिक फुटबॉल मैच नियमित रूप से देखती आ रही हैं। फुटबॉल के प्रति दीवानगी तथा फुटबॉल और हिंदी साहित्य के बीच उन्होंने एक रिश्ता बना डाला। उन्होंने फुटबॉल के कोच और खिलाड़ियों पर कविताएं और आलेख हिंदी में लिखे हैं, जिनका अनुवाद कई भाषाओं में हुआ है। वह कहती हैं-कई वर्ष से मैं इस खेल में उसके कोच और खिलाड़ियों की तरह ही रमी हुई हूं, मैने कई देशों में जाकर विश्व फुटबॉल मैच देखे हैं। वह कहती हैं-मुझे यह खेल इसलिए पसंद है, क्योंकि इस खेल में दोनों टीम का हर खिलाड़ी अंतिम क्षण तक हार नहीं मानता है और आखिरी सांस तक गोल करने के लिए प्राण-प्रण से लगा रहता है, गिरता है, पड़ता है, धक्के खाता है, चोटिल होता है फिर भी रुकता नहीं है, उसकी आंखें फुटबॉल और गोल पर ही लगी रहती हैं। प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी ने यही ही प्रयोग हिंदी के उत्थान पर किया है, जिसकी सफलता उनके सामने है और जिसमें उन्होंने फुटबॉल के खिलाड़ियों की तरह अपनी भाषा और संस्कृति के आंदोलन और अटूट संबंधों से देश-विदेश में अक्षय और अभिन्न पहचान बनाई है। बधाई!