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Saturday 23 April 2016 02:11:33 AM
नई दिल्ली। सुप्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार स्वयं प्रकाश ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आयोजित 'लेखक से मिलिए' कार्यक्रम में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि स्वतंत्रता के बाद नया समाज नहीं बन पाने के कारण यदि कोई जाति वर्ण व्यवस्था लौटती है तो यह हमारी समाज व्यवस्था के पतन का द्योतक है। उन्होंने कहा कि नायकत्व से आशय मनुष्येतर कार्यक्रम नहीं हो सकता, असमानता और अन्याय के विरुद्ध लड़ाई हजारों साल से चल रही है, अत्याचारी को कहानी में मारना आसान उपाय हो सकता है, लेकिन यह वास्तविक जीवन में नहीं होता। उन्होंने कहा कि संघर्षरत आम आदमी का चित्रण कर पहली बार प्रेमचंद ने उन्हें नायक बनाया। स्वयं प्रकाश ने कार्यक्रम में अपनी चर्चित कहानी 'कानदांव' का पाठ भी किया।
स्वयं प्रकाश ने जिज्ञासुओं के सवालों के जवाब में कहा कि उन्होंने रचना में प्रचलित भाषा या अलोक भाषा को लेने का आग्रह इसलिए रखा है कि भाषा इसी परिवेश की वास्तविक सृष्टि है, आलोचना की भाषा रचना की भाषा नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि लेखक पात्र और उसकी भाषा के बीच तो रहेगा, लेकिन उसे कोशिश करनी होती है कि पात्र उसी की भाषा न बोलने लगें। कहानी पाठ के संबंध में उन्होंने कहा कि नई कहानी के बाद के कथा आंदोलनों ने कहानी को अमूर्त बनाने का काम किया था, तब आगे के कथाकारों ने इसे मराठी की कथा-कथन परंपरा से जोड़कर हिंदी में भी वाचिक गुणों से संपन्न किया। उन्होंने इस संदर्भ में शरद जोशी के कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ को भी याद किया। स्वयं प्रकाश ने आज के सामाजिक जीवन के आलोक में एक अन्य सवाल के जवाब में कहा कि गठजोड़ों को समझना आवश्यक है, आखिर वह कौनसा गठजोड़ है, जो बड़े उद्योगपतियों को हजारों करोड़ रुपए लेकर भागने में मदद करता है और दस-बीस हजार के ऋण न चुका पाने पर किसान या गरीब को जेल जाना पड़ता है या आत्महत्या करनी पड़ती है।
कार्यक्रम के संयोजक और रीडर डॉ विनोद तिवारी ने स्वयं प्रकाश के साहित्य पर प्रकाश डाला और कहा कि स्वयं प्रकाश की कहानियों में सम्प्रेषण का अद्भुत गुण है, जिसमें समकालीन ध्वनियों को सुना जा सकता है और जिससे कई अर्थ और छवियां उद्घाटित होती हैं। प्रोफेसर हरिमोहन शर्मा ने स्वयं प्रकाश का स्वागत करते हुए कहा कि वे अपने समय के सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध ऐसे कथाकार हैं, जो आत्मप्रचार से दूर रहकर अपना काम निष्ठा से करते हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश की अस्सी के दशक में सम्पादित पत्रिका 'क्यों' को भी याद किया। हिंदी विभाग के आचार्य गोपेश्वर सिंह ने कहा कि स्वयं प्रकाश जैसे कथाकार का हमारे समय में होना आश्वस्ति देता है, खुशी देता है। उन्होंने कहानी के ढांचे में स्वयं प्रकाश के प्रयोगों को रेखांकित करते हुए कहा कि कहानी के बीच में अचानक लेखक का आकर पाठक को सीधे संबोधित करना नारेबाजी जैसा है, किंतु स्वयं प्रकाश अपनी कहानियों में इसे भी कला बना देते हैं। उन्होंने स्वयं प्रकाश की एक कहानी 'अशोक और रेनू की असली कहानी' की चर्चा करते हुए कहा कि मेल शोवेनिज्म पर हिंदी में ऐसी कहानी कोई दूसरी नहीं है। इस मौके पर प्रोफेसर केएन तिवारी, प्रोफेसर अनिल राय, प्रोफेसर राजेंद्र गौतम और बड़ी संख्या में विद्यार्थी और शोधार्थी उपस्थित थे।