Tuesday 14 March 2017 06:20:16 AM
चंपत राय
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण मंदिर अथवा मस्जिद का सामान्य विवाद नहीं है, बल्कि यह भगवान श्रीराम की जन्मभूमि को वापस प्राप्त करने का संघर्ष है। यह हिंदुस्थान के स्वाभिमान का संघर्ष है और विदेशी आक्रांताओं की याद दिलाने वाले ऐसे सभी चिन्ह अब भारत से हटने ही चाहिएं। हिंदू समाज की शुरू से ही धारणा है कि अयोध्या के मोहल्ला रामकोट में जिस स्थान पर तीन गुंबदों वाला ढांचा खड़ा था, वहां कभी श्रीराम जन्मभूमि मंदिर था। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को सन् 1528 में विदेशी आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर तोड़ा गया था। मुसलमानों का तर्क है कि तीन गुंबदों वाला यह ढांचा सरयू नदी के किनारे खाली पड़ी बंजर भूमि पर इबादत के लिए बनाया गया था, वहां कोई मंदिर नहीं तोड़ा गया, अत: यह सार्वजनिक मस्जिद घोषित की जाए। बाबरी मस्ज़िद के पैरोकारों ने वर्ष 1991 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री को वचन दिया था कि यदि यह सिद्ध हो गया कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है तो वे स्वेच्छा से यह स्थान हिंदू समाज को सौंप देंगे। जब वह जीर्ण-क्षीर्ण ढांचा 6 दिसंबर 1992 को ढहा तो उसकी खोखली दीवारों में से प्राचीन मंदिर के खंडित अवशेष मिले और साथ ही साथ दीवार में चिना गया एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ। ये सभी वस्तुएं न्यायपालिका के संरक्षण में अयोध्या में सुरक्षित रखी हुई हैं। जनवरी 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से इस प्रश्न का उत्तर चाहा था कि अयोध्या में जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी, उस स्थान पर इसके पहले क्या कोई हिंदू धार्मिक भवन अथवा कोई हिंदू मंदिर था, जिसे तोड़कर वह ढांचा खड़ा किया गया?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भी यही प्रश्न प्रमुखता से उठा कि हिंदू समाज जिस स्थान को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानता है, वहां बाबर के आक्रमण के पहले कभी कोई मंदिर था अथवा नहीं था? सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से यह प्रश्न पूछे जाने का कारण जानना चाहा था, तब भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सितंबर 1994 ईस्वी में शपथपत्र दिया था कि यदि यह सिद्ध हो गया कि मंदिर तोड़कर तीन गुंबदों वाले ढांचे का निर्माण किया गया है तो भारत सरकार हिंदू समाज की भावनाओं के अनुसार कार्य करेगी और यदि यह सिद्ध हुआ कि उस स्थान पर कभी कोई मंदिर नहीं था, अत: कुछ भी तोड़ा नहीं गया, तो भारत सरकार मुस्लिमों की भावनाओं के अनुसार व्यवहार करेगी। यह प्रश्न ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुख्य प्रश्न बना, इसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि के स्थान के नीचे राडार तरंगों से फोटोग्राफी कराई। फोटोग्राफी करने वाले कनाडा के विशेषज्ञों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि जमीन के नीचे दूर-दूर तक भवन के अवशेष उपलब्ध हैं। इन्हें देखने के लिए वैज्ञानिक उत्खनन किया जाना चाहिए। कनाडा के भू-वैज्ञानिक की सलाह पर उच्च न्यायालय ने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग को उत्खनन का निर्देश दिया। अयोध्या में उस स्थान पर वर्ष 2003 में 6 महीने तक उत्खनन हुआ, 27 दीवारें मिलीं, जिनमें नक्काशीदार पत्थर लगे हैं, 52 ऐसी शिलाएं मिलीं, जिन्हें खम्भों का जमीन के नीचे का आधार कहा गया, भिन्न-भिन्न स्तर पर 4 फर्श मिले, पानी की पक्की बावड़ी और उसमें उतरने के लिए अच्छी सुंदर सीढ़ियां मिलीं, एक छोटे से मंदिर की रचना मिली, जिसे पुरातत्ववेत्ताओं ने 12वीं शताब्दी का हिंदू मंदिर बताया। पुरातत्ववेत्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा कि उत्खनन में जो-जो वस्तुएं मिली हैं, वे सभी उत्तर भारतीयशैली के हिंदू मंदिर की वस्तुएं हैं, अत: इस स्थान पर कभी एक मंदिर था।
पुरातत्व विभाग की इस रिपोर्ट के आधार पर ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने 15 वर्ष की सघन वैधानिक कार्यवाही के पश्चात अपने निर्णय में लिखा था कि 'विवादित स्थल ही भगवान श्रीराम का जन्मस्थान है, जन्मभूमि स्वयं में देवता है और विधिक प्राणी है, जन्मभूमि का पूजन भी रामलला के समान ही दैवीय मानकर होता रहा है और देवत्व का यह भाव शाश्वत है, यह सर्वत्र रहता है और हर समय रहता है और यह भाव किसी भी व्यक्ति को किसी भी रूप में भक्त की भावनाओं के अनुसार प्रेरणा प्रदान करता है, देवत्व का यह भाव निराकार में भी हो सकता है।' पीठ के दूसरे सदस्य न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने लिखा है कि हिंदुओं की श्रद्धा और विश्वास के अनुसार विवादित भवन के मध्य गुंबद के नीचे का भाग भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है, अतः यह घोषणा की जाती है कि आज अस्थायी मंदिर में जिस स्थान पर रामलला का विग्रह विराजमान है, वह स्थान हिंदुओं को दिया जाएगा। पीठ के तीसरे सदस्य न्यायमूर्ति एसयू खान, न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने निर्मोही अखाड़ा द्वारा वर्ष 1959 में तथा सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड द्वारा दिसंबर 1961 में दायर किए गए मुकद्मों को निरस्त कर दिया और निर्णय दिया कि निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड को कोई राहत नहीं दी जा सकती। विवादित ढांचा किसी पुराने भवन को विध्वंस करके उसी स्थान पर बनाया गया था। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कहा कि पुरातत्व विभाग ने यह सिद्ध किया है कि वह पुराना भवन कोई विशाल हिंदू धार्मिक स्थल था, विवादित ढांचा बाबर के द्वारा बनाया गया था, यह इस्लाम के नियमों के विरुद्ध बना, इसलिए यह मस्जिद का रूप नहीं ले सकता। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने अपने निर्णय में लिखा कि तीन गुंबदों वाला वह ढांचा किसी खाली पड़े बंजर स्थान पर नहीं बना था, बल्कि अवैध रूप से एक हिंदू मंदिर और पूजा स्थल के ऊपर खड़ा किया गया था।
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने लिखा कि वहां एक गैर इस्लामिक धार्मिक भवन अर्थात हिंदू मंदिर को गिराकर विवादित भवन का निर्माण कराया गया था। प्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सका कि निर्मित भवन सहित सम्पूर्ण विवादित परिसर, बाबर अथवा इस मस्जिद का निर्माण कराने वाले व्यक्ति अथवा जिसके आदेश से यह भवन बनाया गया, उसकी सम्पत्ति है। न्यायमूर्ति एसयू खान का यह निष्कर्ष विवादित भवन के वक्फ होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है कि इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार जोर-ज़बरदस्ती से प्राप्त की गई भूमि पर पढ़ी गई नमाज़ अल्लाह स्वीकार नहीं करते हैं और न ही ऐसी संपत्ति अल्लाह को समर्पित की जा सकती है, किसी मंदिर का ध्वंस करके उसके स्थान पर मस्जिद के निर्माण करने की अनुमति कुरआन व इस्लाम की मान्यताएं नहीं देतीं। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कुरआन व इस्लाम की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए निर्णय दिया कि विजेता बाबर को भी विवादित भवन को मस्जिद के रूप में अल्लाह को समर्पित करने का अधिकार नहीं था। भगवान रामलला के अधिकार को स्थापित करने में केवल एक ही बाधा आई है और वह है न्यायमूर्ति एसयू खान एवं न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल द्वारा विवादित परिसर का तीन हिस्सों में विभाजन अर्थात भगवान रामलला, निर्मोही अखाड़ा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों ही विवादित परिसर का 1/3 भाग प्राप्त करेंगे। यह ध्यान देने योग्य है कि यह मुकदमा सम्पत्ति के बंटवारे का मुकदमा नहीं था और निर्मोही अखाड़ा अथवा सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड अथवा रामलला विराजमान तीनों में से किसी ने भी परिसर के बंटवारे का मुकदमा दायर नहीं किया था और न ही परिसर के बंटवारे की कोई भी मांग की थी, अत: बंटवारे का आदेश देना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करते समय इसी आशय की मौखिक टिप्पणी एक न्यायाधीश ने की भी थी।
फैजाबाद जिला न्यायालय में पहला मुकद्मा वर्ष 1950 में दायर हुआ था, जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 30 सितम्बर 2010 को इसका फैसला दिया। निर्णय प्राप्त करने में 60 वर्ष लगे। सभी पक्षकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें दायर की हैं। सर्वोच्च न्यायालय में कितना समय लगेगा, यह भविष्यवाणी नहीं हो सकती। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक सोमनाथ के मंदिर के संबंध में भारत सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने त्वरित कार्रवाई की थी। नवम्बर 1947 में सरदार वल्लभभाई पटेल ने जूनागढ़ की एक मीटिंग में यह घोषणा की थी कि सरकार सोमनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण करेगी, परंतु सरकारी पैसे से नहीं और भगवान शंकर के ज्योतिर्लिंग की पुर्नप्रतिष्ठा की जाएगी, जो कि भारत के हिंदू समाज की भावनाओं एवं सम्मान का प्रतीक होगी। सरदार पटेल के इस निर्णय को पंडित नेहरू की स्वीकृति एवं महात्मा गांधी का समर्थन प्राप्त था। भारत के तत्कालीन खाद्य एवं कृषि मंत्री केएम मुंशी मंदिर पुर्ननिर्माण समिति के अध्यक्ष थे। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने नवनिर्मित मंदिर में ज्योतिर्लिंग स्थापित किया था। उद्घाटन समारोह में उन्होंने कहा था कि राख में से ऊपर उठते हुए पुर्नप्रतिष्ठित भगवान सोमनाथ का यह मंदिर संसार में यह घोषणा करता है कि विश्व का कोई भी व्यक्ति या शक्ति ऐसी किसी वस्तु या स्थान को नष्ट करने का अधिकार नहीं रखती, जिसके प्रति आम जनमानस की अगाध श्रद्धा और विश्वास हो।
श्रीराम जन्मभूमि की अदला-बदली नहीं की जाती, यह न खरीदी जा सकती है, न बेची जा सकती है और न ही दान दी जा सकती है। यह अपरिवर्तनीय है। संपूर्ण विवाद अधिक से अधिक 1500 वर्ग गज भूमि का है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिकतम 140 X 100 फीट होती है। भारत सरकार द्वारा अधिग्रहीत 70 एकड़ भूमि इससे अलग है तथा वह भारत सरकार के पास है, जिसपर कोई मुकद्मा अदालत में लंबित नहीं है। इसी 70 एकड़ भूखंड में लगभग 45 एकड़ भूमि श्रीराम जन्मभूमि न्यास की है। इस भूमि का अधिग्रहण होने के बाद भी श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने भारत सरकार से कभी कोई मुआवजा नहीं लिया। विवादित कहा जाने वाला संपूर्ण स्थल और अधिग्रहीत जमीन रामलला विराजमान की है। यह भगवान श्रीराम की जन्मभूमि, लीलाभूमि और क्रीड़ाभूमि है। श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करने का संघर्ष सन् 1528 से निरंतर जारी है। यह संघर्ष अयोध्या का संत समाज और आस-पास के राजा-महाराजा करते आ रहे हैं। करीब 76 संघर्षों का वर्णन इतिहास के पन्नों में मिलता है। ये संघर्ष बताते हैं कि हिंदुओं ने इसस्थान से अपना दावा कभी नहीं छोड़ा। इन संघर्षों से यह भी पता चलता है कि मुस्लिम आक्रमणकारी और उनके वंशजों का इस स्थान पर कभी भी शांतिपूर्ण और निर्बाध अधिकार नहीं रहा। भगवान की जन्मभूमि होने के कारण वह स्थान हिंदू समाज के लिए पूज्य, पवित्र तथा स्वयं में एक देवता है। मंदिर तोड़ दिए जाने के बावजूद भक्तजन उस स्थान की परिक्रमा करके उसे साष्टांग प्रणाम करते हैं। परिक्रमा का अर्थ ही है कि वह स्थान पूज्य और देवता है। परिक्रमा केवल हिंदू मंदिरों में ही होती है। परिक्रमा महत्वपूर्ण है, गणेशजी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की और वे प्रथम पूज्य बने। देवता खंडित नहीं हो सकते, अत: श्रीराम जन्मभूमि के टुकड़े भी स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं।
हिंदू समाज में मंदिर की संपूर्ण संपत्ति भगवान की होती है, किसी व्यक्ति, ट्रस्ट या महंत की नहीं होती। महंत, व्यक्ति, साधु, पुजारी, ट्रस्टी भगवान के सेवक होते हैं, स्वामी कदापि नहीं होते। हिंदू समाज में देवता एक जीवंत इकाई है, परंतु नाबालिग है, वह अपना मुकद्मा लड़ सकता है तथा संपत्ति का स्वामी होता है। श्रीराम जन्मभूमि संपत्ति न होकर स्वयं में देवता है, उसके साथ सामान्य संपत्ति का विवाद नहीं हो सकता। देवता की संपत्ति पर किसी का चाहे कितना भी लंबे समय से कब्जा रहा हो, वह उसका मालिक नहीं बन सकता। भगवान नाबालिग हैं, बोल नहीं सकते, इसलिए कानूनी रूप से उन्हें एक संरक्षक चाहिए। यह संरक्षक कोई महंत अथवा कोई अन्य व्यक्ति भी हो सकता है। इन मुकद्मों में जो वादी नहीं हैं और प्रतिवादी भी नहीं हैं, किंतु वार्ताएं कर रहे हैं, वह निरर्थक हैं, ये सिर्फ नाम पाने की लालसा से कर रहे हैं। बाबर कोई पैगम्बर या महापुरुष नहीं था, वह केवल विदेशी आक्रांता था, वह न तो भारत के तत्कालीन मुसलमानों का पूर्वज है और न ही आज के मुसलमान उसके वंशज हैं। इस विदेशी आक्रमणकारी से लगाव कैसा? यह देशभक्ति नहीं है। तीन गुंबदों वाला ढांचा कोई धार्मिक उपासना स्थल के रूप में नहीं बनाया गया था। यह तो भारत पर विदेशियों की विजय के प्रतीक के रूप में बनाया गया था। यह ढांचा भारतीयों के लिए गुलामी का प्रतीक था। इस्लाम के अनुसार किसी दूसरे के स्थान पर जबरदस्ती मस्जिद बनाना इस्लाम के विरूद्ध है। ऐसेविवादितस्थान पर पढ़ी गई नमाज़ भी खुदा को कबूल नहीं है। मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज़ कहीं पर भी पढ़ी जा सकती है। जिस प्रकार हिंदू परंपराओं में मंदिर भगवान का घर है, उस रूप में मस्जिद अल्लाह का घर नहीं है, यह सिर्फ एक जगह एकत्रित होकर नमाज पढ़ने का स्थान है।
मस्जिद के लिए आवश्यक है कि किसी भी भूमि को मस्जिद बनवाकर अल्लाह को समर्पित करने वाला व्यक्ति अर्थात वाकिफ उस भूमि का असली मालिक होना चाहिए अर्थात जमीन अविवादित रूप से खरीदी गई हो, अर्थात सभी प्रकार के विवादों से परे हो, तभी उस जमीन पर मस्जिद बनाकर उसे अल्लाह को समर्पित किया जा सकता है, किसी और की सम्पत्ति अल्लाह को समर्पित नहीं की जा सकती। युद्ध में जीतने के कारण ही बाबर उस जमीन का मालिक नहीं बन सकता। वह केवल भूमि का लगानइकट्ठा करने का अधिकारी हो सकता था। वहां पर अजान केलिए कोई मीनार नहीं थी। बजू यानी हाथ-पैर धोने के स्थान की कोई व्यवस्था नहीं थी, तब वह ढांचा मस्जिद था ही नहीं। समझौते के प्रयास स्वयं राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रीकाल में हुए थे, किंतु सब असफल रहे। सबसे ईमानदार प्रयास चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रीकाल में हुए, किंतु वे भी सफल नहीं हो सके, इसलिए आज कुछ व्यक्ति विशेष वार्ता की चर्चा करें, तो यह बात आधारहीन ही लगती है। कारसेवकअनुशासनहीन नहीं थे। उन्होंने संतों के आदेशों का पूरा पालन किया। दिल्ली में रानी झांसी स्टेडियम में 30 अक्टूबर 1992 को धर्म संसद हुई थी। इसमें तीन हजार से अधिक संतों ने 6 दिसंबर 1992 को 11.45 बजे गीता-जयंती के दिन कारसेवा का समय निश्चित किया था, जिसका कारसेवकों ने अक्षरश: पालन किया, न कि अयोध्या, फैजाबाद में कोई लूट-पाट हुई तथा न ही कारसेवकों के आने-जाने के मार्ग में ऐसा हुआ। अयोध्या-फैजाबाद व कारसेवकों के मार्ग में पड़ने वाले तमाम गांवों की जनता ने जात-बिरादरी के भेद मिटाकर रामभक्तों का स्वागत किया, भोजन कराया, घरों में टिकाया, शीत से उनकी रक्षा की। इन परिवारों में एक भी अनहोनी नहीं हुई। कारण था कि कारसेवक एक महान उद्देश्य की प्राप्ति-हेतु अयोध्या आए थे।
कुछ लोग कहते हैं कि मंदिर-मस्जिद पास-पास बनाने से शांति हो जाएगी। यह बात निराधार है। सन् 1885 में न्यायाधीश कर्नल चैमियर ने अभिमत दिया था कि मंदिर और मस्जिद एक साथ नहीं रह सकते, मस्जिद व मंदिर एक साथ रहने पर शांति कायम रखने की समस्या हमेशा बनी रहेगी। अनुभव के आधार पर यह आज भी सत्य है। मुसलमानों ने अदालत में कहा कि मंदिर के घंटे की आवाज़ शैतान की आवाज़ है। नमाज़ तो शांति व मौन भाव से की जाती है, जबकि भगवान की आरती घंटे-घड़ियाल, नगाड़े के साथ धूमधाम से होती है। दोनों में सामंजस्य बैठ ही नहीं सकता। भारत के कोने-कोने में नमाज़ के समय नेताओं के भाषणों का माइक बंद करना पड़ता है, बारात का बाजा बंद करना पड़ता है, जलूस के ढोल बंद करने पड़ते हैं, अन्यथा दंगे होते हैं। अयोध्या में मंदिर-मस्जिद पास-पास में बनी तो अगली पीढ़ी की शांति भी छिन जाएगी और आपसी झगड़ों का बीजारोपण होगा। अयोध्या में आज भी एक दर्जन से अधिक ऐसी मस्जिदें हैं, जहां कोई भी नमाज़ पढ़ने नहीं जाता। वे 6 दिसंबर 1992 को भी थीं। सब पुरानी हैं, कोई नई नहीं है। छह दिसंबर के बाद तक लाखों उत्साही नौजवान रामभक्त अयोध्या में उपस्थित थे, किंतु उन्होंने किसी भी अन्य मस्जिद को छुआ तक नहीं, किसी मुसलमान के घर को नुकसान नहीं पहुंचाया। अयोध्या में मुस्लिम व्यापारी भी हैं, मुस्लिम आबादी है, किंतु सब सुरक्षित रहे। मंदिर के निर्धारित प्रारूप के लिए 3 लाख गांवों के 6 करोड़ हिंदुओं ने पूजन करके रामशिलाएं अयोध्या भेजीं। वे शिलाएं सुरक्षित हैं।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का गर्भगृह ही मंदिर है और मंदिर वहीं बनेगा, जहां रामलला विराजमान हैं। मंदिर भी उन्हीं संतों के करकमलों से बनेगा, जिन्होंने 1984 से आज तक इस आंदोलन का लगातार नेतृत्व और मार्गदर्शन किया है। श्रीराम जन्मभूमि न्यास एक वैधानिक न्यास है। अयोध्या की मणिरामदास छावनी के महंत नृत्यगोपाल दास महाराज इसके कार्याध्यक्ष हैं। मंदिर उसी मानचित्र पर बनेगा, जिसके चित्र विश्व के करोड़ों हिंदू घरों में विद्यमान हैं। गुलामी के चिन्ह हटाने का यह आंदोलन न भारत के लिए नया है न दुनिया के लिए। सोमनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण गुलामी के चिन्ह हटाने का ही प्रमाण है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात दिल्ली में इंडिया गेट के नीचे रखी अंग्रेज की मूर्ति हटाई गई। भारत के जिस शहर में भी विक्टोरिया की मूर्ति थी, हटाई गई। सम्पूर्ण देश की अनेक सड़कों, पार्कों, अस्पतालों, पुलों व रेलवे स्टेशनों और यहां तक कि शहरों तकके नाम बदलकर गुलामी के प्रतीकों को समाप्त किया गया। देश के सबसे बड़े राजमार्ग जीटी रोड का नाम महात्मा गांधी मार्ग, कम्पनी गार्डन का नाम गांधी पार्क, इरविनअस्पताल का नाम डॉ जयप्रकाश नारायण अस्पताल, मिंटो ब्रिज का नाम शिवाजी ब्रिज, एल्फ्रेड पार्क का नाम आजाद पार्क, मुम्बई के विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन का नाम छत्रपति शिवाजी स्टेशन रखा गया। इसके अलावा मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई इत्यादि नाम भी गुलामी को समूल नष्ट करने के प्रयास के अंतर्गत ही बदले गए। हिंदुओं के लिए अयोध्या का उतना ही महत्व है, जितना मुसलमानों के लिए मक्का का है। मक्का में कोई गैर मुस्लिम प्रवेश नहीं कर सकता, अत: अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा में कोई नई मस्जिद, स्मारक या इस्लामिक सांस्कृतिक केंद्र भी नहीं बन सकता।
इसलिए भारत का राष्ट्रीय समाज अपेक्षा करता है कि मुस्लिम समाज, सरकार को दिए गए अपने वचन का पालन करे और स्वेच्छा से यह स्थान हिंदू समाज को सौंप दें। भारत सरकार भी अपने शपथ पत्र का पालन करे और राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए वर्ष 1993 में अधिगृहीत सम्पूर्ण 70 एकड़ भूमि श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण हेतु हिंदू समाज को सौंप दे। सर्वदा के लिए समाधान हेतु श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर संसद में कानून बने। यह सुनिश्चित किया जाए कि अयोध्या की सांस्कृतिक सीमा के भीतर कोई भी नई मस्जिद अथवा इस्लामिक सांस्कृतिक केंद्र या स्मारक का कदापि निर्माण नहीं होगा। (लेखक चंपतराय एक विख्यात विचारक और विश्व हिंदू परिषद के महामंत्री हैं)।